भ्रमरगीत सूरदास








सुनौ गोपी हिर कौ संदेस।किर समाधि अंतर गति ध्यावहु, यह उनको उपदेस।।वै अविगत अविनासी पूरन, सब घट रहे समाई।तत्वज्ञान बिनु मुक्ति नहीं, वेद पुराननि गाई।।सगुन रूप तिज निरगुन ध्यावहु, इक चित्त एक मन लाई।वह उपाई किर बिरह तरौ तुम, मिले ब्रह्म तब आई।।दुसह संदेस सुन माधौ को, गोपि जन बिलखानी।सूर बिरह की कौन चलावै, बूड़ितं मनु बिन पानी॥3

   हे गोपियों, हिर का संदेस सुनो। उनका यही उपदेस है कि समाधि लगा कर अपने मन में निगुर्ण निराकार ब्रह्म का ध्यान करो। यह अज्ञेय, अविनाशी पूर्ण सबके मन में बसा है। वेद पुराण भी यही कहते हैं कि तत्वज्ञान के बिना मुक्ति संभव नहीं। इसी उपाय से तुम विरह की पीड़ा से छुटकारा पा सकोगी। अपने कृष्ण के सगुण रूप को छोड़ उनके ब्रह्म निराकार रूप की अराधना करो। उद्धव के मुख से अपने प्रिय का उपदेश सुन प्रेममार्गी गोपियाँ व्यथित हो जाती हैं। अब विरह की क्या बात वे तो बिन पानी पीड़ा के अथाह सागर डूब गईं। तभी एक भ्रमर वहाँ आता है तो बस जली-भुनी गोपियों को मौका मिल जाता है और वह उद्धव पर काला भ्रमर कह कर खूब कटाक्ष करती हैं।



रहु रे मधुकर मधु मतवारे।कौन काज या निरगुन सौं, चिरजीवहू कान्ह हमारे।।लोटत पीत पराग कीच में, बीच न अंग सम्हारै।भारम्बार सरक मदिरा की, अपरस रटत उघारे।।तुम जानत हो वैसी ग्वारिनी, जैसे कुसुम तिहारे।घरी पहर सबहिनी बिरनावत, जैसे आवत कारे।।सुंदर बदन, कमल-दल लोचन, जसुमति नंद दुलारे।तन-मन सूर अरिप रहीं स्यामह,ि का पै लेहिं उधारै॥4

   गोपियाँ भ्रमर के बहाने उद्धव को सुना-सुना कर कहती हैंर् हे भंवरे। तुम अपने मधु पीने में व्यस्त रहो, हमें भी मस्त रहने दो। तुम्हारे इस निरगुण से हमारा क्या लेना-देना। हमारे तो सगुण साकार कान्हा चिरंजीवी रहें। तुम स्वयं तो पराग में लोट लोट कर ऐसे बेसुध हो जाते हो कि अपने शरीर की सुध नहीं रहती और इतना मधुरस पी लेते हो कि सनक कर रस के विरुद्ध ही बातें करने लगते हो। हम तुम्हारे जैसी नहीं हैं कि तुम्हारी तरह फूल-फूल पर बहकें, हमारा तो एक ही है कान्हा जो सुन्दर मुख वाला, नीलकमल से नयन वाला यशोदा का दुलारा है। हमने तो उन्हीं पर तन-मन वार दिया है अब किसी निरगुण पर वारने के लिये तन-मन किससे उधार लें?



निरगुन कौन देस को वासी।मधुकर किह समुझाई सौंह दै, बूझतिं सांिच न हांसी।।को है जनक, कौन है जननि, कौन नारि कौन दासी।कैसे बरन भेष है कैसो, किहं रस मैं अभिलाषी।।पावैगो पुनि कियौ आपनो, जो रे करेगौ गांसी।सुनत मौन हवै रहयौ बावरो, सूर सबै मति नासी॥6॥  

हाँ तो उद्धव यह बताआे कि तुम्हारा यह निगुर्ण किस देश का रहने वाला है? सच सौगंध देकर पूछते हैं, हंसी की बात नहीं है। इसके माता-पिता, नारी-दासी आखिर कौन हैं? कैसा है इस निरगुण का रंग-रूप और भेष? किस रस में उसकी रुिच है? यदि तुमने हमसे छल किया तो तुम पाप और दंड के भागी होगे। सूरदास कहते हैं कि गोपियों के इस तकर् के आगे उद्धव की बुद्धि कुंद हो गई। और वे चुप हो गए।


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