गीता की संक्षिप्त व्याख्या

संक्षिप्त व्याख्या – गीताप्रेस


प्रथम अध्याय का तात्पर्य

जैसे अर्जुन कुरुक्षेत्र में युद्ध करने आ तो गये थे लेकिन उनके मन में शंका थी कि यदि मैं युद्ध करूँगा तो अपने ही भाइयों तथा सगे संबंधियों को मारने से मुझे पाप लगेगा और मेरा धर्म नष्ट होगा परन्तु यदि अधर्म और दुष्टों को नष्ट करने हेतु युद्ध नही करता हूँ अर्थात अपने क्षत्रिय होने के कर्तव्य को नही निभाता हूँ तो भी उनका धर्म नष्ट होगा l

ऐसी ही शंकाएं धार्मिक लोगों के जीवन में भी आती हैं कि धर्म का पालन करेंगे तो बस फिर धर्म में ही लग जायेंगे, अपने परिवार को छोड़ना पड़ेगा और यदि परिवार में ही सारा ध्यान लगा देते हैं तो धर्म छोड़ना पड़ेगा l

ऐसे ही हजारों प्रश्न युगों युगों से भक्तों के मन में रहे हैं, श्रीमदभगवतगीता पिछले युग अर्थात द्वापर युग में कही गई लेकिन आज भी कलयुग में हमारे मन के प्रश्नों के उत्तर इसी में प्राप्त होते हैं l

गीता माता को प्रणाम

अध्याय 2- व्याख्या

जितने भी मनुष्य, पशु आदि के शरीर इस समय दिखाई दे रहे हैं, वे सब एक दिन नष्ट हो जायेंगे, जैसे मनुष्य पुराने कपड़े उतार कर नये कपड़े पहन लेता है ऐसे ही आत्मा भी पुराना शरीर त्याग कर नया शरीर धारण कर लेती है l

जो इस समय पर सुख या दुःख की स्थिति है, वो भी पहले नही थी और हमेशा के लिए भी नही रहेंगी l

जब मनुष्य इस तरह सोचता है जैसे गीता के अध्याय 2 में भगवान अर्जुन को कह रहे हैं तब मनुष्य दुःख, तनाव (परेशानी) तथा शंकाओं से ऊपर उठ जाता है l

अध्याय 3 – व्याख्या

इस अध्याय में भगवान निष्काम अर्थात बिना स्वार्थ के अपने कर्तव्यों को पूरा करने के लिए कहते हैं l

भले ग्यानी हो या अज्ञानी, भले भगवान का अवतार ही क्यों न हो, सबको अपने कर्तव्यों को पूरा करना चाहिए l

भगवान कहते हैं मुझपे कोई दायित्व नही है लेकिन फिर भी ve अवतार लेते हैं, धर्म की स्थापना हेतु, मर्यादा कि स्थापना करते हैं क्योंकि भगवान करेंगे तो अच्छे लोग और महान आत्माएं उनकी मर्यादा का अनुसरण करेंगे l

अध्याय 4 – व्याख्या
इस अध्याय में भगवान अपना उदाहरन देते हैं जैसे भगवान ने ये संसार बनाया अर्थात कर्म किया पर इस कर्म को करके वे इससे जुड़े (attach, मोह) नही, इसलिए भगवान को दुनिया बनाने का जो कर्म है उसका फल या परिणाम भोगना नही पड़ेगा l

ऐसे ही हम जो कर्म कर रहे हैं, उस कर्म को करते समय “हम कर रहे हैं” ये न सोचें और उसका परिणाम जो होगा उसके मोह को त्याग दें तो हम भी उस कर्म से जुड़े नही रहेंगे और कर्म के अच्छे या बुरे बंधन से छूट जायेंगे l

पापी मनुष्य भी कर्मो के रहस्य को समझ लेने से जल्दी ही धर्मात्मा बन जाता है l
जैसे अग्नि सब कुछ जला देती है ऐसे ही ज्ञान की अग्नि सब कर्मो को जला देती है l

अध्याय  5 – व्याख्या

भगवान अर्जुन को समझाते हैं कि केवल परिवार को छोड़ देने से कोई व्यक्ति सन्यासी नही हो जाता, जो किसी से भी जुड़ाव नही रखता, मोह नही रखता, घृणा नही करता, अपने कर्तव्यों का पालन करता है, वही सच्चा सन्यासी है l जो अच्छी स्थिति में प्रसन्न नही होता और बुरी स्थिति में दुखी नही होता अर्थात दोनों ही परिस्थितियों में सम रहे ऐसा मनुष्य ही परमात्मा में स्थित रहता है l संसार में मिलने वाले सुख-दुःख से सुखी दुखी नही होना चाहिए क्यूंकि इनमे फना हुआ मनुष्य संसार से उपर नही उठ सकता l


अध्याय 6 – व्याख्या
हम किसी भी प्रकार कि साधना करें पर हमारे मन में समता आणि चाहिए, समता अर्थात सुख-दुःख दोनों में एक समान रहना l जब तर्क समता नही आती मनुष्य भगवान का ध्यान भी ठीक से नही कर सकता क्यूंकि उसका मन नही लगेगा l


अध्याय 7 – व्याख्या

जैसे कपास (रूई) के बने कपड़े में हर जगह कपास ही कपास है ऐसे ही भगवान के बनाये इस संसार में हर जगह भगवान ही भगवान हैं l
जल, अग्नि, भूमि, सूर्य, चन्द्रमा आदि सब कुछ भगवान ही हैं, गहराई से देखा जाए तो सब कुछ भगवान ही हैं l
वसुदेव जो हर जगह रहते हों, बसते हों, भगवान को वसुदेव इसलिए ही कहते हैं क्योंकि वे हर जगह बसते हैं l


अध्याय 8 व्याख्या

हमे अपने जीवन में परमात्मा का अधिक से अधिक ध्यान करना चाहिए क्योंकि जो काम हमने सबसे अधिक किया हो, जिसके साथ सबसे अधिक जुड़ाव (मोह) हो अंत समय में वही याद आता है, इसलिए सदा परमात्मा के बारे में ही सोचो जो परमात्मा के बारे में सोचता है वो परमात्मा को ही प्राप्त करता है l

इसलिए कहते हैं कि सम्पूर्ण जीवन संसार में व्याप्त भौतिक वस्तुओं के ही बारे में रहते हैं वो वृद्धावस्था में जो थोड़ी बहुत भक्ति करते हैं, वो भगवान को नही पा पाते l

जैसे भगवान को मुरझाये हुए फूल नही चढ़ाए जाते अपितु ताज़ा और नवीन फूल चढाये जाते हैं उसी प्रकार बचपन से ही भगवान के मार्ग पर चलना चाहिए l

अध्याय 9 – व्याख्या
भगवान ने अर्जुन को अपने विश्व रूप का दर्शन करवाया कुरुक्षेत्र में, हम भले अभी वो न देख सकते हों पर हम इस पूरे विश्व को भगवान का रूप तो मान ही सकते हैं l

अर्जुन ने विश्वरूप को दिव्य नेत्रों से देखा, भगवान के उस रूप में सभी देवता, ऋषि, मुनि, योगी, तपस्वी आदि सब कुछ भगवान में ही हैं यहाँ तक कि राक्षस, असुर भी भगवान में ही हैं l
क्यूंकि ये संसार को भी भगवान ने ही बनाया है, हर कण में भगवान ही हैं इसलिए हमे प्रत्येक वस्तु में भगवान को ही देखना चाहिए l


अध्याय 10 – व्याख्या

हम जहां कहीं भी अच्छी या सुंदर वस्तु देखते हैं, हम आकर्षित होते हैं, जहाँ शक्तिशाली व्यक्तित्व देखते हैं हम प्रभावित होते हैं, ये सुन्दरता और शक्ति किसकी है... भगवान की ही तो है l

इसलिए जहां भी अच्छी वस्तु दिखाई दे उस अच्छी वस्तु में भगवान को ही देखना चाहिए l

इसलिए 10वें अध्याय में भगवान सभी महत्वपूर्ण लोगों में कहते हैं कि वो वास्तव में मैं ही हूँ ...
वेदों में सामवेद मैं हूँ l
महर्षियों में भृगु मैं हूँ l
वृक्षों में पीपल मैं हूँ l
गौवों में कामधेनु मैं हूँ l
मनुष्यों में राजा मैं हूँ l
नागों में शेषनाग मैं हूँ l
पशुओं में सिंह मैं हूँ l
नदियों में गंगा मैं हूँ l

अध्याय 11 – व्याख्या




अध्याय 12 – व्याख्या

जो अपने मन और बुद्धि को भगवान में ही लगा देता है वो भगवान में ही रहता है l

जो भक्त किसी अच्छी-बुरी स्थिति में सुखी या दुखी नही होते, प्रत्येक स्थिति में संतुष्ट रहते हैं वे भगवान को बहुत प्रिय होते हैं l
प्रत्येक व्यक्ति भगवान के प्रेम का पात्र बन सकता है यदि वो भगवान में अपनापन करे, उनको अपना माने l


अध्याय 13 – व्याख्या


भगवान की आंखें नही हैं परन्तु वो सब कुछ देखते हैं, भगवान के कान नही हैं परन्तु वे सब सुनते हैं, आदि, भगवान ही सबके अंदर हैं और सबके बाहर भी l भगवान ही सारे ज्ञान को प्रकाशित करते हैं l इस प्रकार से परमात्मा को अच्छे से समझ लेने से व्यक्ति परमात्मा को पा लेता है l

अध्याय 14 – व्याख्या
भगवान कहते हैं तीनो गुण एक दूसरे को दबाते हैं, जैसे सत्व दबाता है तमस और रजस को तो हमारी बुद्धि शुद्ध होती है, हम धर्म में रूचि लेते हैं आनन्द लेते हैं, सेवा करते हैं, भक्ति करते हैं l

जब रजस सत्व को दबाता है तब हम में सक्रियता बहुत अधिक आ जाती है, हमे बस काम काम ही करना अच्छा लगता है, हमे इर्ष्य, वासना, लालच बढ़ जाता है, ऐसे ही हब तमस सत्व और रजस को दबाता है तब हम आलसी हो जाते हैं हम कुछ भी नही करना चाहते l
लेकिन भगवान इन तीनो गुणों से पार जाने के लिए गीता में उपदेश देते हैं तीनो गुणों से भी उपर जो चला गया वो ही मुक्त है l

अध्याय 15 – व्याख्या
भगवान ही सूर्य और चन्द्रमा में स्थित प्रकाश रूप में है, परमात्मा ही पेड़-पौधों में वृद्धि लाते हैं, परमात्मा ही पेट में खाना पचाते हैं, परमात्मा ही सब वेदों को जानते हैं और वेदों द्वारा ही जाने जाते हैं l परमात्मा को ही पुरुषोत्तम कहते हैं अर्थात वो पुरुष जो मन से उत्तम और सर्वश्रेष्ठ है l

परमात्मा को ही सबसे श्रेष्ठ और उत्तम मान कर उनकी भक्ति करनी चाहिए, ये ही गीता के 15वें अध्याय में कहा गया है l

अध्याय 16 – व्याख्या
भगवान 16वें अध्याय में 2 प्रकार के मनुष्यों की बात करते हैं एक वो जिनके पास देव गुण हैं (दैवीय सम्पदा) दूसरे वो जिनके पास राक्षसों के अवगुण (आसुरी सम्पदा) हैं l

जो अपने अहंकार, लालच जैसे आसुरी स्वभाव को छोड़ कर अहिंसा, यज्ञ, तपस्या, सत्य बोलना, दान करना आदि जैसे दैवीय स्वभाव को स्वयं में धारण करते हैं वे संसार से मुक्त हो जाते हैं l

दूसरी और जो अहंकार, लालच, दूसरों को तंग करना, दूसरों को चिंता देना, पाप करना, बुरे कर्म करना, हिंसा, घृणा आदि आसुरी अवगुणों को धारण करते हैं, वे मनुष्य 84 लाख जन्मो और योनियों में भटकते हैं l

अध्याय 17 – व्याख्या
व्यक्ति की जैसी श्रद्धा होती है वो वैसे ही देवता या असुर की पूजा करता है और उसके पूजा करने का तरीका भी l

तामसिक लोग भूतों की पूजा करते हैं l
राजसिक लोग देवताओं की पूजा करते हैं l
सात्विक लोग भगवान की पूजा करते हैं l

व्यक्ति सात्विक है या राजसिक या तामसिक ये वो कैसे भोजन का सेवन करता है उससे पता चल जाता है क्योंकि व्यक्ति भोजन भी अपनी प्रकृति के अनुसार ही पसंद करता है l

अध्याय 18 – व्याख्या

जो मनुष्य सब कर्मो को भगवान को ही अर्पित कर देता है वो सब विघ्नों से तर जाता है, अपने मन को भगवान में ही लगा देने से भगवान की प्राप्ति हो जाती है, सभी सहारों को छोड़ कर केवल भगवान को ही सहारा लान लेने से मनुष्य के सभी पाप भगवान समाप्त कर देते हैं l

यही अंतिम उपदेश भगवान ने कुरुक्षेत्र में युद्ध भूमि में गीता के 18वें अध्याय में दिया हा और यह भी कहा था कि ये गुप्त उपदेश है जो सुनना चाहता हो केवल उसे ही बताना l




No comments:

Post a Comment