गीताप्रेस सुविचार भाग 5



  1. जो भगवान, गुरु, ग्रन्थों से डरता है वही सच्चा वीर है l
  2. कोई हमे अपनी ख़ुशी से कोई चीज़ दे तो वो चीक दूध जैसी है,-हम किसी वस्तु को मांग रहे हैं तो वो चीज़ पानी जैसी है,-हम किसी चीज को छीन के दूसरों का दिल दुखा कर लें तो वो वस्तु रक्त जैसी है l
  3. जब हम सबकी बात नही मानते तो दूसरा हमारी बात नही मानता तो हमे नाराज नही होना चाहिए l 
  4. सच्चे धार्मिक व्यक्ति को दुनिया की कोई वस्तु नही चाहिए बल्कि दुनिया उसके पीछे फिरती है l
  5. धर्म के अनुसार स्वयं चलना ही धर्म का सबसे बड़ा प्रचार है l
  6. धर्म का मूल है:-स्वर्थ का त्याग, दूसरों का भला करना
  7. भारत में जन्म लेकर भी मनुष्य धर्म में न लगे ये बड़े आश्चर्य तथा दुःख की बात है क्योंकि धर्म ही तो भारत की अरमा है, भारत में जन्म मिलना अर्थात भगवान की कृपा होना, भारत में जन्म ही धर्म की प्राप्ति के लिए मिलता है l
  8. वस्तुमात्र को भगवान् का स्वरुप और चेष्टामात्र को भगवान् की लीला समझने समझने से भगवान् का तत्त्व समझ में आ जाता है ।
  9. सर्वत्र भगवद्भावके सामान कोई भाव नहीं है और सर्वत्र भगवद्भाव होने से दुर्गुण और दुरुचारों का अत्यंत अभाव होकर सद्गुण और सदाचार अपने–आप ही आ जाते हैं ।
  10. भगवान् बहुत बड़े दयालु और प्रेमी हैं । जो साधक उनका तत्त्व समझ जायगा, वह भगवान् की शरण होकर शीघ्र ही परम शान्ति को प्राप्त हो जायगा ।
  11. प्रेमपूर्वक जप-सहित भगवान् के ध्यान का अभ्यास, श्रद्धापूर्वक सत्पुरुषोंका संग, विवेकपूर्वक भावसहित सत- शास्त्रों का स्वाध्याय, दु:खी, अनाथ, पूज्यजन तथा वृद्धों की नि:स्वार्थभावसे सेवा — इनको यदि कर्तव्यबुद्धिसे किया जाय तो ये एक-एक साधन शीघ्र कल्याण करने वाले हैं ।
  12. जिसने ईश्वर की दया और प्रेम के तत्त्व-रहस्य को जान लिया है, उसके शान्ति और आनन्द की सीमा नहीं रहती ।
  13.  शीघ्र कल्याण चाहने वाले मनुष्य को परमात्माकी प्राप्ति के सिवा और किसी भी बात की इच्छा नहीं रखनी चहिये; क्योंकि इसके सिवा सब इच्छाएँ जन्म-मृत्यु रूप संसार-सागर में भरमाने वाली हैं 
  14.  श्रद्धा होने पर श्रद्धेय पुरुष की छोटी-से-छोटी क्रिया में भी बहुत ही विलक्षण भाव प्रतीत होने लगता है ।
  15.  ईश्वर, महात्मा, शास्त्र और परलोक में विश्वास करने वाले पुरुष से कभी पाप नहीं बन सकते । उसमे धीरता, वीरता, गम्भीरता, निर्भयता, समता और शान्ति आदि अनेक गुण अनायास ही आ जाते हैं, जिससे उसके सारे आचरण स्वाभाविक ही उत्तम-से-उत्तम होने लगते हैं । 
  16.  भगवान् के नाम,रूप, गुण , प्रभाव, तत्त्व, रहस्य और चरित्रों को हर समय याद करते हुए मुग्ध रहना चाहिये ।
  17.  एकान्त में भगवान् के आगे करुण भाव से रोते हुए स्तुति प्रार्थना करने से भी श्रद्धा बढती है ।
  18.  भगवान् के गुण, प्रभाव, चरित्र तत्त्व और रहस्य की बातें सुनने, पढ़ने और मनन करने से श्रद्धा होती है ।
  19. शौचाचारसे सदाचार बहुत ऊँचा है, उस से भी भगवान् की भक्ति और ऊँचे दर्जे की चीज है ।
  20. मन और इन्द्रियोंको इस प्रकार वशमें रखना चाहिये कि जिस से व्यर्थ और पापके काममें न जाकर जहाँ हम लगाना चाहें उसी भगवत्प्राप्ति के मार्ग पर लगी रहें ।
  21. अपने द्वारा किसी का अनिष्ट हो जाय तो सदा उसका हित ही करता रहे, जिससे कि अपने किये हुए अपराध को वह मनसे भूल जाय, यही इसका असली प्रायश्चित है ।
  22. अपने पर किये हुए उपकार को आजीवन कभी न भूले एवं अपकार करने वाले का बहुत भारी प्रत्युपकार करके भी अपने ऊपर उसका अहसान ही समझे ।
  23. अनिष्ट करने वाले के साथ बदले में बुराई न करे, उसे क्षमा कर दे; क्योंकि प्रतिहिंसा का भाव रखने से मनुष्य दोष का भागी होताकिसी के भी दुर्गुण-दुराचार का दर्शन, श्रवण, मनन, और कथन नहीं करना चाहिये। यदि उसमे किसी का हित हो तो कर सकते हैं; किन्तु मन धोखा दे सकता है, अत: खूब सावधानी के साथ विचार पूर्वक करना चाहिये । है ।
  24. दूसरों को दुःख पहुँचाने के सामान कोई पाप नही है और सुख पहुँचाने के सामान कोई धर्म नहीं है । इसलिये हर समय दूसरों के हित के लिये प्रयत्न करना चाहिये ।
  25. स्त्रीके लिये पातिव्रत्यधर्म ही सबसे बढ़कर है । इसलिये भगवान् को याद रखते हुए ही पतिकी आज्ञा का पालन विशेषता से करना चाहिये तथा पतीके और बड़ों के चरणों में नमस्कार करना और उनसबकी यथायोग्य सेवा करनी चाहिये ।







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