रामसुखदासजी सुविचार 2


  • मनसे भगवान् का चिंतन, वाणीसे भगवान् के नामका जप, सबको नारायण समझकर शरीर से जगज्जनार्दनकी नि:स्वार्थ सेवा यही उत्तम-से-उत्तम कर्म है ।
  • जिसका समय व्यर्थ होता है, उसने समय का मूल्य समझा ही नहीं । 
  •  जो संसार समुद्र से कुछ लेना चाहता है वह डूब जाता है और जो देना चाहता है वह पार हो जाता है l
  • अपने हित की अपेक्षा जब परहित को अधिक महत्व मिलेगा तभी सच्चा सतयुग प्रकट होगा। 



  • अपनी दिनचर्या में परमार्थ को स्थान दिये बिना आत्मा का निर्मल और निष्कलंक रहना संभव नहीं।
  • १ स्नान और नित्यकर्म किये बिना दातुन और जलके सिवा कुछ भी मुख में न लें ।
  • २ श्रीभगवान् के भोग लगाकर तथा यथादिकार बलिवैश्वदेव करके ही भोजन करें ।
  • ३ तुलसीदल के सिवा चलते फिरते या खड़े हुए कोई भी चीज कभी न खाय ।
  • ४ भोजन के आदि और अंत में आचमन करे ।
  • धन किसी को अपना दास नहीं बनाता, मनुष्य स्वयं ही धन का दास बन कर अपना पतन कर लेता है l
  • मुक्ति इच्छाओं के त्याग से होती है वस्तुओं के त्याग से नही l 
  • यदि आप चाहते हैं कि कोई भी मुझे बुरा न समझे तो दूसरों को बुरा समझने का भी आपको कोई अधिकार नही है l
  • मनुष्य का अंत:करण जितना अपवित्र होता है उतना ही उसे दूसरों के दोष दिखते हैं l
  • दूसरों का दोष देखने से ना तो हमारा भला होता है न दूसरों का l
  • जैसा मैं चाहूं वैसा हो जाये यह इच्छा जब तक रहेगी, तब तक शांति नही मिल सकती l
  • मनुष्य समझदार होकर भी उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओं को चाहता है, ये कितने आश्चर्य की बात है l
  • जितना हो सके दूसरों की आशाएं पूरी करने का प्रयास करो परन्तु दूसरों से आशा मत रखो l
  • परमात्मा की अभिलाषा करते हो तो संसार की अभिलाषाओं को छोडो l
  • कामना के कारण ही कमी है, कामना से रहित होने पर कोई कमी नही रहती l
  • दया के सामान कोई धर्म नहीं, हिंसा के सामान कोई पाप नहीं, ब्रह्मचर्य के सामान कोई व्रत नहीं, ध्यान के सामान कोई साधन नहीं, शान्ति के सामान कोई सुख नहीं, ऋणके सामान कोई दुःख नहीं, ज्ञान के सामान कोई पवित्र नहीं, ईश्वर के सामान कोई इष्ट नहीं, पापी के सामान कोई दुष्ट नहीं — ये एक-एक अपने –अपने स्थान पर अपने-अपने विषयमें सबसे बढ़कर प्रधान हैं । 
  • मनुष्य-जीवन के समय को अमूल्य समझकर उत्तम-से-उत्तम काममें व्यतीत करना चाहिये। एक क्षण भी व्यर्थ नहीं बिताना चाहिये ।







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