रामसुखदासजी सुविचार 5

जैसे बिना चाहे सांसारिक दुःख प्राप्त होता है, इसी प्रकार बिना चाहे सांसारिक सुख भी प्राप्त होता है, अत: स्वयं सांसारिक सुख की इच्छा कभी नही करनी चाहिए l
अपने लिए भोग और संग्रह की इच्छा करने से मनुष्य पशुओं से भी नीचे गिर जाता है और इच्छा का त्याग करने से वह देवताओं से भी ऊँचा उठ जाता है l
विचार करो जिससे आप सुख चाहते हो क्या वह पूर्ण रूप से सुखी है? क्या उसे कोई दुःख नही है ? दुखी व्यक्ति आपको सुखी कैसे बना देगा ?
जिसके भीतर कोई इच्छा नही होती, उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति प्रकृति अपने आप करती है l
यदि शांति चाहते हो तो “ऐसा होना चाहिए और ऐसा नही होना चाहिए” इसे छोड़ दो, और “जो भगवान चाहें वही होना चाहिये” उसको स्वीकार कर लो l
वस्तु के न मिलने से हम अभागे नही हैं, बल्कि भगवान के अंश होकर भी हम नाशवान वस्तु की इच्छा करते हैं, यही हमारा वास्तविक अभागापन है l 
भगवान जो कुछ करते हैं उसी में मेरा हित है, ऐसा विश्वास करके हर परिस्थिति में निश्चिन्त रहना चाहिए l
आप भगवान को नही देखते पर भगवान आपको निरंतर देख एहे हैं l
जब तक नाशवान वस्तुओं में सत्यता दिखेगी तब तक बोध नही होगा l
अभी जो धन प्राप्त हो रहा है वह वर्तमान कर्मो का फल नही अपितु प्रारब्ध (पूर्वजन्मो के कर्मो ) का फल है l वर्तमान में धन प्राप्ति के लिए जो बेईमानी की जाती है उसका फल तो आगे मिलेगा l
जैसे अपना दुःख दूर करने हेतु रूपये खर्च करते हैं वैसे ही दूसरों का दुःख दूर करने हेतु भी खर्च करो, अभी हमे रूपये रखने का अधिकार है l
मनुष्य का सम्मान एवं प्रतिष्ठा धन बढने से नही है, बल्कि धर्म बढने से है l




भगवान के नाम का जप और कीर्तन दोनों कलयुग से रक्षा करके उद्धार करने वाले हैं l
नाम जप में प्रगति होने की पहचान है, नाम जप छूटता ही नही l
नाम जप में रूचि नाम जप करने से ही होती है l
भगवान के नाम का जप सबके लिए है, और जीभ भी सबके मुख में होती है, परन्तु फिर भी कितने ही नरक में जाते हैं, आश्चर्य है l
भगवान का कौन सा नाम बढिया है, और भगवान का कौन सा रूप बढिया है, इसकी परीक्षा करने की बजाय अपनी परीक्षा करनी चाहिए, कि मुझे भगवान का कौन सा नाम और रूप अधिक प्रिय है l
दूसरों का बुरा करने से तो पाप लगता ही है, लेकिन दूसरों की बुराई कहने और सुनने में भी पाप लगता है l
भगवान से विमुख होना और संसार के सम्मुख होना, यही सबसे बड़ा पाप है l
किसी व्यक्ति को भगवान की और ले जाने के सामान कोई पुन्य नही है कोई दान नही है l 
पहले पाप कर लें फिर प्रायश्चित्त कर लेंगे ऐसे जान बूझ कर किये गए पाप प्रायश्चित्त से नष्ट नही होते
प्रत्येक मनुष्य को भगवान् की और चलना ही पड़ेगा, भले आज चले या अनेक जन्मो के बाद चले... तो फिर देरी क्यों ? 
संसार के कार्य में तो लाभ और हानि दोनों ही होते हैं, परन्तु भगवान के कार्य में लाभ ही लाभ होता है l
सांसार में असंतोष करने से पतन होता है और परमात्मा में असंतोष करने से उत्थान होता है l
प्रारब्ध का कार्य तो केवल सुख देने वाली या दुःख देने वाली परिस्थिति को उत्पन्न करना है, परन्तु उसमे सुखी या दुखी होना उसके चयन में मनुष्य स्वतंत्र है l
यह परमात्मा का विधान है कि अपने पाप से अधिक दंड कोई नही भोगता और जो दंड प्राप्त होता है वह अपने ही किसी न किसी पाप का फल होता है l 
संसार में प्रेम घटते ही परमात्मा में प्रेम हो जाता हि
भगवान के प्रति प्रेम होना, आकर्षण होना, खिंचाव होना ही भक्ति है l





रामसुखदासजी सुविचार 4

दूसरों के प्रति हमारी बुरी भावना होने से उनका बुरा होगा या नही यह निश्चित नही है, परन्तु हमारा अंत:करण मिला हो जायेगा यह निश्चित है l — 
संसार बंधन से मुक्त होना चाहते हो तो जो वस्तुएं तुम्हें प्राप्त हैं उनकी ममता और जो वस्तुएं तुम्हें प्राप्त नही हैं उनकी कामना का त्याग करता l
शरीर संसार का अंश है, हम स्वयं परमात्मा के अंश हैं, इसलिए शरीर को संसार को अर्पित कर देना चाहिए अर्थात संसार की सेवा में लगा देना चाहिए, और स्वयं को परमात्मा को अर्पित कर दे, फिर आज ही मुक्ति है l
अनुकूलता - प्रतिकूलता ही संसार है, अनुकूलता - प्रतिकूलता में प्रसन्न और दुखी होने से मनुष्य बंध जाता है, तथा प्रसन्न और दुखी न होने से मुक्त हो जाता है l


अपने लिए सुख चाहने से नाशवान सुख प्राप्त होता है और दूसरों को सुख पहुंचाने से अविनाशी सुख प्राप्त होता है l
सुख भोगने हेतु स्वर्ग है, तथा दुःख भोगने हेतु नरक है तथा सुख-दुःख से ऊँचे उठ कर महान आनन्द की प्राप्ति हेतु मनुष्य लोग है l
जैसे रोगी का उद्देश्य निरोग होना है, इसी प्रकार मनुष्य जीवन का उद्देश्य अपना कल्याण करना है l
. इन्द्रियों द्वारा भोग तो पशु भी भोगते हैं, पर उन भोगों को भोगना मनुष्य जीवन का उद्देश्य नही l सुख –दुःख से रहित तत्व को प्राप्त करना मनुष्य जीवन का उद्देश्य है l 
वास्तव में परमात्मा प्राप्ति के सिवाय मनुष्य जीवन का अन्य कोई प्रयोजन नही, आवश्यक केवल इस प्रयोजन को पहचान कर इसे पूरा करने की है l
जो आराम चाहता है वह अपनी वास्तविक उन्नति कभी नही कर सकता l
शरीर, इन्द्रियां, मन, बुद्धि इनसे अपना संबंध न रखना ही सच्चा एकांत है l 
वर्तमान समय में घरों में एवं समान में जो अशांति देखने में आ रही है, उसका मूल कारण है कि लोग अपने अधिकार की मांग तो करते हैं परन्तु अपने कर्तव्यों का पालन नही करते l
अपने हित हेतु किया गया कर्म ‘असत’ तथा दूसरों के हित के लिए किया गया कर्म ‘सत’ है, असत का परिणाम जन्म मरण और सत का परिणाम परमात्मा प्राप्ति है l
संसार के सभी संबंध अपने कर्तव्य का पालन करने हेतु हैं, न कि अधिकार जमाने हेतु, सुख देने के लिए है न कि सुख लेने के लिए l
कल्याण की प्राप्ति अत्यंत सुगम एवं सरल है, परन्तु कल्याण की ईच्छा ही न हो तो फिर वह इच्छा सरलता किस काम की ?
घर में रहने वाले सब लोग स्वयं को सेवक तथा दूसरों को सेव्य समझें, तो सबकी सेवा भी हो जाएगी और सबका कल्याण भी हो जायेगा l
“मेरे मन की हो जाए” इसी को कामना कहते हैं... यह कामना ही दुःख का कारण है, अत: इसका त्याग किये बिना कोई सुखी नही हो सकता l
जैसे जैसे कामनाएं नष्ट होती हैं, वैसे वैसे ही साधुता आती है, और जैसे जैसे कामनाएं बढती हैं वैसे वैसे साधुता लुप्त होती है, क्यूंकि (कारण) असाधुता का मूल कामना ही है l
ऐसा होना चाहिए, ऐसा नही होना चाहिए... इसी में सब दुःख भरे हुए हैं l
यदि शान्ति चाहते हो तो कामनाओं का त्याग करो l





रामसुखदासजी सुविचार 3


  • भगवान को अपना मानना योग है और भगवान से कुछ चाहना भोग है l
  • बाहर का प्रकाश तो सूर्य करता है, भीतर का प्रकाश संत महात्मा करते हैं l
  • “मुझे मिल जाये” यह भोग है “दूसरों को मिल जाये” यह योग है l
  • योगी के द्वारा सबको सुख मिलता है और भोगी के द्वारा सबको दुःख ही मिलता है l
  • मनुष्य शरीर मिल गया परन्तु परमात्मा की प्राप्ति नही हुई यही सबसे बड़ा दुःख होना चाहिए l
  • शरीर का सदुपयोग तो केवल संसार की सेवा में ही है l

  • पापी मनुष्य तो पशुओं से भी नीच है क्योंकि पशु तो अपनी 84 लाख योनियों को भोग लेने के बाद मनुष्य बनने वाला है और जो मनुष्य शरीर प्राप्त करके भी पाप कर रहा है वह फिर 84 लाख योनियों में जाने की तैयारी कर रहा है l
  • मनुष्य शरीर केवल परमात्मा की प्राप्ति हेतु मिला है, परमात्मा की प्राप्ति करना ही मनुष्य का वास्तविक धर्म है l
  • सुख भोगने के लिए स्वर्ग है और दुःख भोगने के लिए नरक है, और सुख दुःख दोनों से ऊँचा उठ कर अपना कल्याण करने के लिए मनुष्य शरीर है l
  • मन की चंचलता मिटाने की इतनी आवश्यकता नही जितना मन को जो संसार प्यारा लगता है उस कामना को मिटाने की... जिससे मन की चंचलता अपने आप मिट जाएगी l
  • भगवान हमारे हैं और जो कुछ भी भगवान ने हमे दिया वह भी भगवान का ही है l
  • परमात्मा के सिवाय कोई मेरा नही है यही वास्तविक भक्ति है l 
  • संसार अधूरा है इसलिए अधुरा ही मिलता है, और परमात्मा पूरे हैं इसलिए पूरे ही मिलते हैं l
  • जैसे मछली जल के बिना व्याकुल हो जाती है, ऐसे ही यदि हम भगवान के बिना व्याकुल हो जायें, तो भगवान के मिलने में समय नही लगेगा l 
  • जैसे गाय का दूध गाय के लिए नही है अपितु दूसरों के लिए है ऐसे ही भगवान की कृपा भी उनके लिए नही अपितु हम सबके लिए है l
  • भगवान के भक्त को भगवान पहले दूर दिखते हैं, फिर पास दिखते हैं, फिर अपने अंदर दिखते हैं और फिर केवल भगवान ही दिखते हैं l
  • जिसकी दृष्टि संसार पर रहती है वह कहता है... “भगवान कहाँ है?” ... जिसकी सदा भगवान पर रहती है वह कहता है ...”भगवान कहाँ नही है?”
  • भगवान सबसे शक्तिशाली होने पर भी हमसे दूर होने का सामर्थ्य नही रखते l
  • जैसे सूर्य प्रकट होता है... पैदा नही होता, ऐसे ही भगवान अवतार के समय प्रकट होते हैं, हमारी तरह पैदा नही होते l
  • जब अंत:करण में संसार का महत्व है तब तक परमात्मा का महत्व समझ में नही आता l
  • भगवान अपने भक्त का जितना आदर करते हैं उतना आदर करने वाला संसार में कोई नही, भक्त भगवान को जिस रूप में देखना चाहता है, भगवान उसके लिए वैसे ही बन जाते हैं l
  • जैसे लालची व्यक्ति की दृष्टी धन पर ही रहती है ऐसे ही भक्त की दृष्टि सदा भगवान पर ही रहनी चाहिए l 
  • जो भगवान का सच्चा भक्त होता है वह कोई कर्म नही करता अपितु पूजा ही करता है क्योंकि प्रत्येक कर्म करते हुए उसकी भावना पूजा की रहती है l
  • जिसका मन भगवान में लगा रहता है उसे सामान्य मनुष्य नही समझना चाहिए, क्यूंकि वह भगवान के दरबार का सदस्य है l 
  • याद रखो किसी का बुरा करोगे तो उसका बुरा हो या न हो तुम्हारा नया पाप अवश्य हो जायेगा l




रामसुखदासजी सुविचार 2


  • मनसे भगवान् का चिंतन, वाणीसे भगवान् के नामका जप, सबको नारायण समझकर शरीर से जगज्जनार्दनकी नि:स्वार्थ सेवा यही उत्तम-से-उत्तम कर्म है ।
  • जिसका समय व्यर्थ होता है, उसने समय का मूल्य समझा ही नहीं । 
  •  जो संसार समुद्र से कुछ लेना चाहता है वह डूब जाता है और जो देना चाहता है वह पार हो जाता है l
  • अपने हित की अपेक्षा जब परहित को अधिक महत्व मिलेगा तभी सच्चा सतयुग प्रकट होगा। 



  • अपनी दिनचर्या में परमार्थ को स्थान दिये बिना आत्मा का निर्मल और निष्कलंक रहना संभव नहीं।
  • १ स्नान और नित्यकर्म किये बिना दातुन और जलके सिवा कुछ भी मुख में न लें ।
  • २ श्रीभगवान् के भोग लगाकर तथा यथादिकार बलिवैश्वदेव करके ही भोजन करें ।
  • ३ तुलसीदल के सिवा चलते फिरते या खड़े हुए कोई भी चीज कभी न खाय ।
  • ४ भोजन के आदि और अंत में आचमन करे ।
  • धन किसी को अपना दास नहीं बनाता, मनुष्य स्वयं ही धन का दास बन कर अपना पतन कर लेता है l
  • मुक्ति इच्छाओं के त्याग से होती है वस्तुओं के त्याग से नही l 
  • यदि आप चाहते हैं कि कोई भी मुझे बुरा न समझे तो दूसरों को बुरा समझने का भी आपको कोई अधिकार नही है l
  • मनुष्य का अंत:करण जितना अपवित्र होता है उतना ही उसे दूसरों के दोष दिखते हैं l
  • दूसरों का दोष देखने से ना तो हमारा भला होता है न दूसरों का l
  • जैसा मैं चाहूं वैसा हो जाये यह इच्छा जब तक रहेगी, तब तक शांति नही मिल सकती l
  • मनुष्य समझदार होकर भी उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओं को चाहता है, ये कितने आश्चर्य की बात है l
  • जितना हो सके दूसरों की आशाएं पूरी करने का प्रयास करो परन्तु दूसरों से आशा मत रखो l
  • परमात्मा की अभिलाषा करते हो तो संसार की अभिलाषाओं को छोडो l
  • कामना के कारण ही कमी है, कामना से रहित होने पर कोई कमी नही रहती l
  • दया के सामान कोई धर्म नहीं, हिंसा के सामान कोई पाप नहीं, ब्रह्मचर्य के सामान कोई व्रत नहीं, ध्यान के सामान कोई साधन नहीं, शान्ति के सामान कोई सुख नहीं, ऋणके सामान कोई दुःख नहीं, ज्ञान के सामान कोई पवित्र नहीं, ईश्वर के सामान कोई इष्ट नहीं, पापी के सामान कोई दुष्ट नहीं — ये एक-एक अपने –अपने स्थान पर अपने-अपने विषयमें सबसे बढ़कर प्रधान हैं । 
  • मनुष्य-जीवन के समय को अमूल्य समझकर उत्तम-से-उत्तम काममें व्यतीत करना चाहिये। एक क्षण भी व्यर्थ नहीं बिताना चाहिये ।







रामसुखदासजी सुविचार 1


🚩एकांत में रहते हुए,

🚩 गंगा स्नान करते हुए,

🚩 भगवान का पूजन करते हुए,

🚩श्री तुलसी कि परिक्रमा करते हुए

🚩श्री हरि के चिन्तन में भी समय व्यतीत करें l




💠
जैसे बच्चा खेलते खेलते माँ को भूल भी जाए पर माँ कभी बच्चे को नही भूलती

💠
ऐसे ही उस परमात्मा का प्रेम तो माता से कहीं अधिक है, तो मैं क्यों चिंता करूँ भगवान स्वयम मेरा भार उठाएंगे l

गीतामें सैकड़ों ऐसे श्लोक हैं जिनमें से एक को भी पूर्णतया धारण करनेसे मनुष्य मुक्त हो जाता है, फिर सम्पूर्ण गीताकी तो बात ही क्या है
जबतक अपनी इच्छा रखोगे, तबतक संसार आदर नहीं करेगा।




🔔अपनी इच्छा छोड़ कर व्यवहार करो।"-

🚩श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज🚩
🔔"स्वार्थ के कारण खुद खाने में आनंद आता है।

🔔 स्वार्थ न हो तो दूसरों को खिलाने में आनंद आता है।"-

🚩श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज🚩

🔔जहाँ राग-द्वेष,
हर्ष-शोक,
अच्छा-मंदा,
अनुकूल-प्रतिकूल आदि दो चीजें रहती हैं, वह संसार है।

🔔दो चीजें मिटकर एक समता हो जाए तो वह परमात्मा है।"-
🚩श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज🚩




गीताप्रेस सुविचार भाग 6



  • महाराज युधिष्ठिरने स्वर्गको ठुकरा दिया, पर अपने अनुगत कुत्तेका भी त्याग नहीं किया ।
  • पाण्डवोंने अपनेसे निम्नश्रेणी के राजा विराटकी नौकरी स्वीकार कर ली, पर धर्म का किंचिन्मात्र भी कभी त्याग नहीं किया ।
  • धैर्य, क्षमा, मनोनिग्रह, अस्तेय, बाहर-भीतर की पवित्रता, इन्द्रियनिग्रह, सात्त्विकबुद्धि, अध्यात्मविद्या, सत्यभाषण, और क्रोध न करना— ये दस सामान्य धर्मके लक्षण हैं ।
  • सर्वस्व जाय तो भी कभी किसी निमित्तसे कहीं किन्चिन्मात्र भी पाप न करे, न करवावे और न उसमे सहमत ही हो ।
  • महापुरुषों के प्रभाव से भगवान् की प्राप्ति होना — यह तो उनका अलौकिक प्रभाव है तथा सांसारिक कार्य की सिद्धि होना — लौकिक प्रभाव है ।
  • मरुभूमि में जल दीखता है, वास्तव में है नहीं । अत: कोई भी समझदार मनुष्य प्यासा होते हुए भी वहाँ जलके लिये नहीं जाता । इसी प्रकार संसार के विषयों में भी सुख प्रतीत होता है, वास्तव में है नहीं । ऐसा जाननेवाले विरक्त विवेकी पुरुष की सुख के लिये उसमे कभी प्रवृत्ति नहीं होती ।
  • आसक्ति वाले पुरुषके मनके अनुकूल होने पर राग और हर्ष तथा प्रतिकूल होने पर द्वेष और दुःख होता है ।
  • झूठसे बचने के लिये जहाँ तक हो, भविष्यके निश्चित वचन नहीं कहने चाहिये ।
  • संसार के किसी भी प्रदार्थ से आसक्ति नहीं करनी चाहिये; क्योंकि आसक्ति होने से अन्तकाल में उसका संकल्प हो सकता है । संकल्प होनेपर जन्म लेना पड़ता है ।
  • बार बार मन से पूछे कि “ बतला, तेरी क्या इच्छा है ?” और मनसे यह उत्तर मिले कि “कुछ भी इच्छा नहीं है ।“ इस प्रकार के अभ्यास से इच्छा का नाश होता है । यह निश्चित बात है ।
  • जिसने सत्य,अहिंसा,क्षमा,दया,समता,शान्ति,संतोष,सरलता,तितिक्षा, त्याग आदि शस्त्र धारण कर रखें हैं , उसका कोई भी शत्रु किंचिन्मात्र भी अनिष्ट नहीं कर सकता ।
  • विशुद्ध ईश्वर-प्रेम एक बहुत गोपनीय परम रहस्य की वस्तु है । उससे बढ़कर संसार में कोई उत्तम वस्तु नहीं ।
  • सदा-सर्वदा ईश्वर पर निर्भर रहना चाहिये । इससे धीरता, वीरता, गंभीरता, निर्भयता और आत्मबलकी वृद्धि होती है ।
  • ईश्वर की सत्ता पर प्रत्यक्षसे भी बढ़कर विश्वास रखे; क्योंकि ईश्वर पर जितना प्रबल विश्वास होगा, साधक उतना ही पाप से बचेगा और उसका साधन तीव्र होगा । 
  • जिसमे प्राणियों की हिंसा होती हो, ऐसी किसी चीज को व्यवहार में न लावें।
  • धन का प्राप्त होना यद्यपि अपने वश की बात नहीं है, तथापि मनुष्य को शरीरनिर्वाह के लिये कर्तव्यबुद्धिसे न्याययुक्त परिश्रम तो अवश्य करना चाहिये ।
  • अकर्मण्यता(कर्तव्यसे जी चुराना) महान हानिकारक है। पाप का प्रायश्चित है, किन्तु इसका नहीं । अकर्मण्यता का त्याग ही इसका प्रायश्चित है ।
  • भगवान् के नाम-रूपको याद रखते हुए ही सामाजिक, व्यवहारिक, आर्थिक आदि काम नि:स्वार्थ भाव से करे ; क्योंकि अपनी सारी चेष्टा नि:स्वार्थभाव से दूसरे के हित के लिये करने से ही कल्याण होता है । 
  • भगवत्प्राप्ति पवित्र और एकान्त देश का सेवन, सत्संग और स्वाध्याय , परमात्माका ध्यान और उसके नाम का जप, निष्कामभाव, ज्ञान, वैराग्य और उपरति — इनके सामान कोई भी साधन नहीं है ।
  • ब्रह्ममुहूर्त में उठाना चाहिये । यदि सोते- सोते ही सूर्योदय हो जाय तो दिनभर उपवास और जप करना चाहिये । 
  • सुननेवालों की इच्छा के बिना वक्ता को सत्संग के सहस्य की बातें नहीं सुनानी चाहिये । 
  • भगवान् के सामान अपना कोई हितैषी नहीं है, अत: अपने अधीन सब पदार्थों को और अपने को राजा बलि की भाँती भगवान् के समर्पण कर देना चाहिये । 
  • एकांत में मन को सदा यही समझाना चाहिये कि परमात्मा के चिंतन के सिवा किसी का चिंतन न करो; क्योंकि व्यर्थ चिंतन से बहुत हानि है । 
  • सोते समय भी भगवान् के नाम, रूपका स्मरण विशेषतासे करना चाहिये, जिससे शयन का समय व्यर्थ न जाय । शयनके समय को साधन बनाने के लिये सांसारिक संकल्पोंके प्रवाहको भुलाकर भगवान् के नाम,रूप,गुण,प्रभाव, चरित्रका चिंतन करते हुए ही सोना चाहिये । 
  • भोजन के समय स्वाद की और ध्यान नहीं देना चाहिये;क्योंकि यह पतन का हेतु है । स्वास्थ्य की ओर लक्ष्य रखना भी वैराग्य में कमी ही है ।


गीताप्रेस सुविचार भाग 5



  1. जो भगवान, गुरु, ग्रन्थों से डरता है वही सच्चा वीर है l
  2. कोई हमे अपनी ख़ुशी से कोई चीज़ दे तो वो चीक दूध जैसी है,-हम किसी वस्तु को मांग रहे हैं तो वो चीज़ पानी जैसी है,-हम किसी चीज को छीन के दूसरों का दिल दुखा कर लें तो वो वस्तु रक्त जैसी है l
  3. जब हम सबकी बात नही मानते तो दूसरा हमारी बात नही मानता तो हमे नाराज नही होना चाहिए l 
  4. सच्चे धार्मिक व्यक्ति को दुनिया की कोई वस्तु नही चाहिए बल्कि दुनिया उसके पीछे फिरती है l
  5. धर्म के अनुसार स्वयं चलना ही धर्म का सबसे बड़ा प्रचार है l
  6. धर्म का मूल है:-स्वर्थ का त्याग, दूसरों का भला करना
  7. भारत में जन्म लेकर भी मनुष्य धर्म में न लगे ये बड़े आश्चर्य तथा दुःख की बात है क्योंकि धर्म ही तो भारत की अरमा है, भारत में जन्म मिलना अर्थात भगवान की कृपा होना, भारत में जन्म ही धर्म की प्राप्ति के लिए मिलता है l
  8. वस्तुमात्र को भगवान् का स्वरुप और चेष्टामात्र को भगवान् की लीला समझने समझने से भगवान् का तत्त्व समझ में आ जाता है ।
  9. सर्वत्र भगवद्भावके सामान कोई भाव नहीं है और सर्वत्र भगवद्भाव होने से दुर्गुण और दुरुचारों का अत्यंत अभाव होकर सद्गुण और सदाचार अपने–आप ही आ जाते हैं ।
  10. भगवान् बहुत बड़े दयालु और प्रेमी हैं । जो साधक उनका तत्त्व समझ जायगा, वह भगवान् की शरण होकर शीघ्र ही परम शान्ति को प्राप्त हो जायगा ।
  11. प्रेमपूर्वक जप-सहित भगवान् के ध्यान का अभ्यास, श्रद्धापूर्वक सत्पुरुषोंका संग, विवेकपूर्वक भावसहित सत- शास्त्रों का स्वाध्याय, दु:खी, अनाथ, पूज्यजन तथा वृद्धों की नि:स्वार्थभावसे सेवा — इनको यदि कर्तव्यबुद्धिसे किया जाय तो ये एक-एक साधन शीघ्र कल्याण करने वाले हैं ।
  12. जिसने ईश्वर की दया और प्रेम के तत्त्व-रहस्य को जान लिया है, उसके शान्ति और आनन्द की सीमा नहीं रहती ।
  13.  शीघ्र कल्याण चाहने वाले मनुष्य को परमात्माकी प्राप्ति के सिवा और किसी भी बात की इच्छा नहीं रखनी चहिये; क्योंकि इसके सिवा सब इच्छाएँ जन्म-मृत्यु रूप संसार-सागर में भरमाने वाली हैं 
  14.  श्रद्धा होने पर श्रद्धेय पुरुष की छोटी-से-छोटी क्रिया में भी बहुत ही विलक्षण भाव प्रतीत होने लगता है ।
  15.  ईश्वर, महात्मा, शास्त्र और परलोक में विश्वास करने वाले पुरुष से कभी पाप नहीं बन सकते । उसमे धीरता, वीरता, गम्भीरता, निर्भयता, समता और शान्ति आदि अनेक गुण अनायास ही आ जाते हैं, जिससे उसके सारे आचरण स्वाभाविक ही उत्तम-से-उत्तम होने लगते हैं । 
  16.  भगवान् के नाम,रूप, गुण , प्रभाव, तत्त्व, रहस्य और चरित्रों को हर समय याद करते हुए मुग्ध रहना चाहिये ।
  17.  एकान्त में भगवान् के आगे करुण भाव से रोते हुए स्तुति प्रार्थना करने से भी श्रद्धा बढती है ।
  18.  भगवान् के गुण, प्रभाव, चरित्र तत्त्व और रहस्य की बातें सुनने, पढ़ने और मनन करने से श्रद्धा होती है ।
  19. शौचाचारसे सदाचार बहुत ऊँचा है, उस से भी भगवान् की भक्ति और ऊँचे दर्जे की चीज है ।
  20. मन और इन्द्रियोंको इस प्रकार वशमें रखना चाहिये कि जिस से व्यर्थ और पापके काममें न जाकर जहाँ हम लगाना चाहें उसी भगवत्प्राप्ति के मार्ग पर लगी रहें ।
  21. अपने द्वारा किसी का अनिष्ट हो जाय तो सदा उसका हित ही करता रहे, जिससे कि अपने किये हुए अपराध को वह मनसे भूल जाय, यही इसका असली प्रायश्चित है ।
  22. अपने पर किये हुए उपकार को आजीवन कभी न भूले एवं अपकार करने वाले का बहुत भारी प्रत्युपकार करके भी अपने ऊपर उसका अहसान ही समझे ।
  23. अनिष्ट करने वाले के साथ बदले में बुराई न करे, उसे क्षमा कर दे; क्योंकि प्रतिहिंसा का भाव रखने से मनुष्य दोष का भागी होताकिसी के भी दुर्गुण-दुराचार का दर्शन, श्रवण, मनन, और कथन नहीं करना चाहिये। यदि उसमे किसी का हित हो तो कर सकते हैं; किन्तु मन धोखा दे सकता है, अत: खूब सावधानी के साथ विचार पूर्वक करना चाहिये । है ।
  24. दूसरों को दुःख पहुँचाने के सामान कोई पाप नही है और सुख पहुँचाने के सामान कोई धर्म नहीं है । इसलिये हर समय दूसरों के हित के लिये प्रयत्न करना चाहिये ।
  25. स्त्रीके लिये पातिव्रत्यधर्म ही सबसे बढ़कर है । इसलिये भगवान् को याद रखते हुए ही पतिकी आज्ञा का पालन विशेषता से करना चाहिये तथा पतीके और बड़ों के चरणों में नमस्कार करना और उनसबकी यथायोग्य सेवा करनी चाहिये ।







गीताप्रेस सुविचार भाग 4


  1. भगवान का नाम जपते समय संसार के बारे में नही सोचना चाहिए और संसार के काम करते समय भी भगवान को नही भूलना चाहिए l
  2. जिसमे बचपन से ही या जवानी में भक्ति नही की वो बुढापे में क्या भक्ति करेगा ?
  3. जैसे व्यापर वो बढिया होता है जिसमे अधिक लाभ हो उसी प्रकार साधना वही बढिया होती है जिसमे अधिक मन भगवान में लगे l



  1. जैसे जैसे समाज में लोग केवल संसार को ही महत्व देना आरम्भ करते हैं और धर्म की उपेक्षा (ignore) करते हैं वैसे ही समाज में अशांति, अपराध, पाप बढ़ते हैं या यूं कहें कि धर्म की उपेक्षा करेंगे तो अधर्म बढ़ता है l
  2. दुःख आता ही इस लिए है कि सुख की इच्छा छूट जाए l
  3. भक्त को सदैव दूसरों कि सेवा करने का लालच होना चाहिए, दूसरों को सुख देकर भक्त स्वयं वहां पहुँच जायेगा जहाँ उसको कभी कोई दुःख नही होगा l
  4. सुख पाना चाहते हो तो पहले दुसरों को सुख दो, जैसे बीज बोओगे, वैसी ही फसल काटोगे l
  5. जो दूसरों को हानि पहुंचाता है वो भी वास्तव में अपनी ही हानि कर रहा है और जो दूसरों का भला कर रहा है वो वास्तव में अपना ही भला कर रहा है l
  6. “दूसरे सुखी हो” - जब व्यक्ति ऐसा भाव रखेगा तो सब सुखी हो जायेंगे और स्वयं भी सुखी हो जायेगा परन्तु “मैं सुखी हो जाऊं” – जब व्यक्ति यह भाव रखेगा तो सब दुखी हो जायेंगे और व्यक्ति स्वयं भी दुखी हो जाएगा l
  7. श्रेष्ठ भक्त वही है जो दूसरों की भलाई में लगा हुआ है l
  8. जो सबका भला चाहता है, वो भगवान के हृदय में स्थान पाता है l
  9. जो दूसरों का भला कर रहा है, वह कहीं भी रहे भगवान को पा लेगा l 
  10. जैसे कोई कम्पनी में अच्छा काम करने से कम्पनी का स्वामी प्रसन्न होता है, ऐसे ही संसार की सेवा करने से संसार के स्वामी (भगवान) प्रसन्न हो जाते हैं 
  11. संसार में दूसरों के लिए जैसा करोगे अपने लिए भी वैसा हो जायेगा, इसलिए सदैव दूसरों का भला करो l
  12. जब कभी सेवा करने का अवसर मिले तो प्रसन्न होना चाहिए कि भाग्य खुल गया l
  13. धार्मिक पुस्तकें, अच्छे विचारों और सत्संग से बुरे से बुरा संभाव भी अच्छा हो जाता है l
  14. आज के समय में तो मनुष्य पशुओं से भी नीचे गिर रहा है, क्यूंकि पशु भी दूसरों का के अधिकार की वस्तुएं नही लेते, मनुष्य तो दूसरों का अधिकार मार रहा है l
  15. हमारी कमाई में किसी दूसरे के अधिकार का एक रूपये न हो इसका सदैव ध्यान रखना चाहिए l 
  16. कुछ करना है तो दूसरों की सेवा करो-कुछ जानना चाहते हो तो अपने आप को जानी -मानना चाहते हो तो भगवान् को मानो- तीनो का परिणाम एक ही होगा
  17. हमे जिस व्यक्ति या वस्तु से मोह (जुड़ाव) हो, उसमे भी भगवान को ही देखना चाहिए l
  18. प्रत्येक समय यह अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि कहीं हम किसी की हानि तो नही कर रहे हैं ?
  19. जैसे बच्चा प्रत्येक स्थिति में माँ को ही पुकारता है इसी प्रकार भक्त को भी प्रत्येक स्थिति में भगवान को ही पुकारना चाहिए l 
  20. जिस कार्य को बाद में सीधा नही किया जा सके, उस उल्टेकार्य को कभी नही करना चाहिए l
  21. चरित्र की सुन्दरता ही वास्तविक सुन्दरता है l
  22. कितने आश्चर्य की बात है कि भगवान की दी हुई वस्तुएं अच्छी लगती है परन्तु भगवान नही अच्छे लगते l




गीताप्रेस सुविचार भाग 3

भगवान श्रीरामके चरित्र बड़े अलौकिक थे l इसी आदर्शको हिंदु-संस्कृति कहते हैं l हमें उसी आदर्शको लक्ष्यमें रखकर उसका अनुसरण करना चाहिये l हिंदु-संस्कृतिके स्वरूपको बतलानेके लिये रामायण एक महान आदर्श ग्रन्थ है l सभीको यह ग्रन्थ पढ़ना और दूसरोंको पढ़ाना चाहियl
हमारे हृदयोंमें भगवान् छिपे हुए हैं; क्योंकि जिस विश्वाससे भगवान् प्रकट होते हैं, वह विश्वास हममें नहीं है ।

🚩ये संसार तो नि:सार है,इसका सार तो केवल भगवान ही जानते हैं l 

🔸वह कुल पवित्र हो गया🔸वो देश पवित्र हो गया 🙏जहाँ हरि के दास ने जन्म लियाl

💖हमेशा भगवान के नाम का कीर्तन और भगवान की कथा का गान होने से मन में अखंड आनंद बना रहता है

🌞भगवान के प्रेमी भक्त जहाँ भगवान के नाम का कीर्तन करते हैं, भगवान तो वहीं रहते हैं l

भगवान के वचन हैं – मेरे भक्त प्रेम से जहाँ मेरे नाम का कीर्तन करते हैं, वहां तो मैं स्वयं रहता हूँ, मैं और कहीं न मिलूं तो मुझे वहां ढूंढो l

भगवान के नाम का कीर्तन करने से संसार का दुःख दूर होता है, हर जगह महासुख भर जाता है l कीर्तन से तो वैकुण्ठ धरती पर आ जाता है l

भगवान स्वके हृदय का भाव जानते हैं, उन्हें बताना नही पड़ता l

किसी वस्तु की कामना करने वाले मनुष्य की जब एक इच्छा पूरी होती है तब दूसरी नई इच्छा उत्पन्न हो जाती है, इस प्रकार तृष्णा एक तीर की तरह मनुष्य के पेट पर चोट करती ही रहती है l

छोटे बड़े सबका शरीर नारायण का ही शरीर है l

हम भगवान् से एक पल के लिए भी अलग नही हो सकते और संसार से हमेशा हमेशा के लिए जुड़े भी नही रह सकते 

प्रत्येक स्थिति में प्रसन्न रहने की समझ सत्संग से ही आती है l

यदि भीतर सच्ची लग्न नही हो तो सत्संग की बातें पचती नही l

भगवान के भक्त को अपने आप से ये प्रश्न करना चाहिए कि आप मुझसे किसी को कोई लाभ नही हुआ, किसी की सेवा नही हुई, किसी के मन को शांति नही मिली तो मैं कैसा भक्त हुआ ?

     🌞हे प्रभु तुम्हारे नाम का कीर्तन छोड़ कर अब मैं और कोई काम नही करूँगा, अब लज्जा छोड़ कर तुम्हारे रंग में नाचूँगा l 





गीताप्रेस सुविचार भाग 2

जैसा अन्न वैसी बुद्धि l जैसा संग वैसी बुद्धि l अतएव सज्जनका संग करो l आत्माका कल्याण करनेवाली पुस्तक पढ़ो और मेहनत करके अपने हकका खाओ l- 

मनुष्य संसारमें जितनी चीजोंको अपनी और अपने लिये मानता है उतना ही वह फँसता है l

एक संत ने कहा है -लोगोंके छिपे हुए ऐब जाहिर मत करो l इससे उसकी इज्जत तो जरूर घट जाएगी, पर तेरा तो ऐतबार ही उठ जाएगा l

चरित्र एक वृक्ष है, मान एक छाया। हम हमेशा छाया की सोचते हैं, लेकिन असलीयत तो वृक्ष ही है।

ऊपर से हम अपनेको जितना अच्छा दिखाते हैं उससे कहीँ अच्छा हमें अन्दर से होना चाहिये l





शरीर-इंद्रियां-मन-बुद्धिसे अपना सम्बन्ध न रखना ही सच्चा एकान्त है l 

किसी तरह भगवान में लग जाओ, फिर भगवान अपने-आप सम्भालेंगे l

संसार अधूरा है, इसलिये अधूरा ही मिलता है और परमात्मा पूरे हैं, इसलिये पूरे ही मिलते हैं l

परमात्मा दूर नहीँ हैं, केवल उनको पानेकी लगनकी कमी है l

जीव जब लायक होता है, तब भगवान दर्शन देते हैं l जीव लायक नहीँ है, इसलिये भगवान दर्शन नहीँ देते l

आपकी प्रेरणाके बिना मन पाप नहीँ कर सकता है l मन स्वतन्त्र नहीँ है, मन नौकर है l आप अपने मन को सत्कर्ममें लगा दो l नहीँ तो, वह पाप करेगा l

.💖मन की एक बात बहुत अच्छी है, इसे जिस बात का चस्का लग जाये ये फिर उसे नही छोड़ता

💖 इसलिए इसे भगवान के नाम के कीर्तन का चस्का लगवा देना चाहिए l

💖हमेशा भगवान के नाम का कीर्तन और भगवान की कथा का गान होने से मन में अखंड आनंद बना रहता है
बड़े भाग्य से यह मनुष्य शरीर मिला है। सब ग्रंथों ने यही कहा है कि यह शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है (कठिनता से मिलता है)।

गीताप्रेस सुविचार भाग 1


प्रश्न:- वैराग्य किसे कहते हैं ?
उत्तर:- वैराग्य का अर्थ है संसार में प्रीती नही होना l

प्रश्न:- उपरान्ता किसे कहते हैं ?
उत्तर:- संसारी पदार्थों में वृत्ति न जाना ही उपरान्ता है l

भक्ति के मार्ग में प्रेम की प्रधानता है l

कर्म योग में स्वार्थ के त्याग की प्रधानता है l

ध्यान योग में आलस्य और विक्षेप के त्याग की प्रधानता है l

ज्ञान के मार्ग में परमात्मा के तत्व का ज्ञान प्रधान है l

किसी की भी आत्मा को दुःख पहुंचे ऐसे कार्य के नजदीक भी नही जाना चाहिए l





एक आदमी गरीब से गरीब है और एक आदमी राजा महाराजा है पर भगवान के घर में दोनों का एक समान ही सम्मान है l

राग, द्वेष ही समस्त अनर्थों के मूल हैं l

जितना राग, द्वेष कम हो गया उतना ही उत्थान समझना चाहिए और जितना ही राग, द्वेष अधिक है उतना ही पतन समझना चाहिए l

किसी के अवगुणों की आलोचना नही करनी चाहिए, दूसरों की आलोचना करने से पतन होता है l

यदि कोई हमारी निंदा करता है तो इससे हमे प्रसन्न होना चाहिए l

यदि कोई बिना अपराध किये हमारा बुरा करता है तो इसे भगवान का भेजा हुआ पुरस्कार समझ कर प्रसन्न होना चाहिए l

जैसे स्वार्थी आदमी कार्य करते समय यह सोचता है कि इस कार्य को करने से मुझे क्या लाभ होगा उसी तरह निष्काम कर्म करने वाले को यह
सोचना चाहिए कि इस कार्य को करने से दूसरों का क्या लाभ होगा ?

मित्भाषी बनना चाहिए अर्थात थोडा बोलना चाहिए l

सत्य, हितकारी और प्रिय वचन बोलना चाहिए l

अधिक बोलने से गलती हो सकती है l

जहाँ तक हो सके छोटे से छोटे जीव को भी हमारे द्वारा कोई हानि न पहुंचे इसका विशेष ध्यान रखना चाहिए l

गीता हमें त्याग सिखाती है – आसक्ति का त्याग, अहंकार का त्याग, ममता का त्याग l




हर एक भाई-बहन को त्याग सीखना चाहिए, स्वार्थ के त्याग के बिना कभी कल्याण नही हो सकता l

किसी के साथ व्यवहार करते समय हमे यह अवश्य सोचना चाहिए कि दूसरे का हित कैसे हो ?

जैसे लोभी आदमी यह सोचता रहता है कि पैसा कैसे मिले उसी प्रकार साधक को यह सोचते रहना चाहिए कि भगवान कैसे मिलें l

मान को विष के समान समझना चाहिए और अपमान को अमृत के समान समझना चाहिए l

हमे परमात्मा की प्राप्ति में देरी हो रही है, इसका कारण है कि हम में स्वार्थ का त्याग नही है, इसलिए स्वार्थ का त्याग करना चाहिए l

चाहे भक्त हो चाहे ज्ञानी हो – समता हो, क्षमा हो परन्तु अहंकार का नाश हो l

यदि समता नही है तो भक्त भक्त नही है और ज्ञानी ज्ञानी नही है l

यदि निंदा करनी है तो अपनी करो और स्तुति करनी है तो दूसरों की करो l


साधक को चाहिए कि वह अपने गुणों को छिपाए और अवगुणों को प्रकट करे और दूसरों के अवगुणों को छिपाए और गुणों को प्रकट करे, यही कल्याण का सरल मार्ग है l


from Amrit wachan booklet Gitapress

आद्य शंकराचार्य की चार पीठ

Adi Shankaracharya established 4 Peeth or Muths in the 4 directions of India -
श्रीमद् आदिशंकराचार्य ने चार दिशाओं में चार पीठ स्थापित कीं ।
आद्य शंकराचार्य की चार पीठ ll



1. First was Shri Govardhan Peeth, in the East direction now in the State of Orrisa at Jagganath Puri. It was based on the Rigved, with Mahavakya- प्रज्ञानं ब्रह्म
(Prajnanam Brahma).
The first Shankaracharya of  acharya Hastamalakacharyaa and the current one is Swami Nishchaland Saraswati.



1. पहली पीठ श्री गोवर्धनपीठ है जो कि पूर्व दिशा में है, यह ऋग्वेद पर आधारित है ।
इस पीठ के सबसे पहले शंकराचार्य स्वामी ह्स्त्मलक आचार्य थे और वर्तमान में स्वामी निश्छलानंद सरस्वती जी विद्यमान हैं ।

इस पीठ का महावाक्य है :- 'प्रज्ञानं ब्रहम्'




2. The second Peeth established was in the west direction, called Sharada Peetham, based on Samved, with Mahavakya- Aham Brahmasmi
currently in Dwarka, Gujarat. The first Shankaracharya of it was Padmapadacharyaas and currently is Swami Swaroopanand Saraswati.

2. दूसरी पीठ श्रीद्वारकाशारदा पीठ है जो कि पश्चिम दिशा में है, यह सामवेद पर आधारित है ।
इस पीठ के सबसे पहले शंकराचार्य थे पद्मपाद और वर्तमान में स्वरूपानंद सरस्वती जी विद्यमान हैं ।
इस पीठ का महावाक्य है :- 'अहं ब्रह्मास्मि'




3. The third Peeth was established in the north in the Badri of Uttarakhand state called Jyotirmath Peetham, based on Atharvaved with Mahavakya - Tattvamasi. Its first Shankaracharya was Totakacharya and currently is Swaroopanand Saraswati.

3. तीसरी पीठ उत्तर दिशा में है जिसे ज्योतिर्मठ पीठ कहा जाता है, बद्रिकाश्रम के नाम से भी जाना जाता है । यह पीठ अथर्ववेद पर आधारित है ।
इस पीठ के सर्वप्रथम शंकराचार्य श्रीतोटकाचार्य थे और वर्तमान में श्री स्वरूपानंद सरस्वती जी विद्यमान हैं ।

इस पीठ का महावाक्य है :- 'तत्वमसि'



4. The fourth Peeth established was in the south, based on Yajurved with Mahavakya- अयमात्मा ब्रह्म
(Ayamatma Brahma it is now in Shringeri in Karnataka. The first Shankaracharya was Sureshwaracharya and currently is Swami Bharti Teerth.

4. चौथी पीठ दक्षिण दिशा में है, यह श्रंगेरी पीठ के नाम से जाना जाता है, कर्नाटक राज्य में।
यह यजुर्वेद पर आधारित है । सुरेश्वराचार्य (मण्डन मिश्र) जी
इस पीठ के पहले शंकराचार्य सुरेश्वराचार्य जी थे और वर्तमान में स्वामिश्री भारती तीर्थ जी विद्यमान हैं ।


इस पीठ का महावाक्य है :- 'अयमात्मा ब्रह्म'

Hastamalakacharyaas the Acharya of the Govardhana

Sureshwaracharyaas the Acharya of Sringeri Sharada

Padmapadacharyaas the Acharya of the Dwaraka Math


Sri Totakacharya as the Acharya of Jyotir Math in the North



विवेकचूड़ामणि हिंदी अर्थ सहित


प्रस्तुत हैं विवेकचूड़ामणि के महत्वपूर्ण श्लोक  हिंदी अर्थ सहित 



जिसमे यह जगत का आभास दर्पण में प्रतिबिम्बित नगर के समान प्रतीत हो रहा है, वह ब्रह्म ही मैं हूँ, ऐसा जान लेने पर तुम कृतकृत्य हो जाओगे ।

That in which there is this reflection of the universe, as of a city in a mirror – that Brahman art thou; knowing this thou wilt attain the consummation of thy life.

श्रीमद आदि शंकराचार्य द्वारा रचित विवेक-चूड़ामणि
Vivek-Chudamani by Shrimad Adi Shankaracharya





जो निर्विकल्प, महान और अविनाशी है, क्षर (शरीर) और अक्षर (जीव) - से भिन्न है तथा नित्य, अव्यय, आनंदस्वरूप और निष्कलंक है वह ब्रह्म ही तुम हो -
ऐसी ह्रदय में भावना करो ।

That which is free from duality; which is infinite and indestructible; distinct from the universe and Maya, supreme, eternal; which is undying Bliss; taintless – that Brahman art thou, meditate on this in thy mind.

श्रीमद आदि शंकराचार्य द्वारा रचित विवेक-चूड़ामणि
Vivek-Chudamani by Shrimad Adi Shankaracharya


जिस प्रकार जल आदि के संसर्गवश [किसी अन्य] अत्यंत दुर्गन्धयुक्त
वस्तु का लेप चढ़ जाने से दबी हुई अगरूकी दिव्य सुगंध संघर्षण (घिसने) के
द्वारा ही बाह्य दुर्गन्ध के दूर होने पर फिर अच्छी तरह प्रतीत होती है; उसी
प्रकार अंत:करण में स्थित अनन्त दुर्वासनारुपी धूलि से ढकी हुई परमात्मावासना
बुद्धि के अत्यंत संघर्ष से शुद्ध होकर चन्दन की गंध के समान ही स्पष्ट प्रतीत
होने लगती है ।

The lovely odour of the Agaru (agalochum) which is hidden by a powerful stench due to its contact with water etc., manifests itself as soon as the foreign smell has been fully removed by rubbing.

श्रीमद आदि शंकराचार्य द्वारा रचित विवेक-चूड़ामणि
Vivek-Chudamani by Shrimad Adi Shankaracharya






रजोगुण और सत्त्वगुण से तं, सत्त्वगुण से रज और शुद्ध सत्त्व से
सत्त्वगुण का नाश होता है, इसलिए शुद्ध सत्त्व का आश्रय लेकर अपने अध्यास का त्याग करो ।

Tamas is destroyed by both Sattva and Rajas, Rajas by Sattva, and Sattva dies when purified. Therefore do way with thy superimposition through the help of Sattva.

श्रीमद आदि शंकराचार्य द्वारा रचित विवेक-चूड़ामणि
Vivek-Chudamani by Shrimad Adi Shankaracharya



प्रारब्ध ही शरीर का पोषण कर्ता है, ऐसा निश्चय कर निश्चलभाव से धैर्य धारण करके यत्नपूर्वक अपने अध्यास को छोडो ।

Knowing for certain that the Prarabdha work will maintain this body, remain quiet and do away with thy superimposition carefully and with patience.

श्रीमद आदि शंकराचार्य द्वारा रचित विवेक-चूड़ामणि
Vivek-Chudamani by Shrimad Adi Shankaracharya




मैं जीव नहीं हूँ, परब्रह्म हूँ, इस प्रकार अपने में जीव भाव का निषेध
करते हुए, वासनात्रय के वेग से प्राप्त हुए जीवतत्व के अध्यास का त्याग करो ।

"I am not the individual soul, but the Supreme Brahman" – eliminating thus all that is not-Self, do away with thy superimposition, which has come through the momentum of (past) impressions.

श्रीमद आदि शंकराचार्य द्वारा रचित विवेक-चूड़ामणि
Vivek-Chudamani by Shrimad Adi Shankaracharya






जब तक स्वप्न के समान जीव और जगत की प्रतीति हो रही है, तब तक हे विद्वन!
अपने आत्मा में हुए इस अध्यास का निरंतर त्याग करते रहो ।

So long as even a dream-like perception of the universe and souls persists, do away with thy superimposition, O learned man, without the least break.

श्रीमद आदि शंकराचार्य द्वारा रचित विवेक-चूड़ामणि
Vivek-Chudamani by Shrimad Adi Shankaracharya
हे मुने! [घट का नाश होने पर] जैसे घटाकाश माहाकाश में मिल जाता है, वैसे ही जीवात्मा को परमात्मा में लीन करके सर्वदा अखण्डभाव से मौन होकर स्थित रहो । 

Merging the finite soul in the Supreme Self, like the space enclosed by a jar in the infinite space, by means of meditation on their identity, always keep quiet, O sage.

श्रीमद आदि शंकराचार्य द्वारा रचित विवेक-चूड़ामणि
Vivek-Chudamani by Shrimad Adi Shankaracharya




जो सर्वदा सत और सुवर्ण के समान स्वयं निर्विकार है तथापि भ्रमवश [उसके विकार कटक-कुंडलादि के समान ] नाना नाम, रूप, गुण और विकारों के रूप में भासता है वह ब्रह्म तुम ही हो - ऐसा अपने चित्त में चिन्तन करो ।

That Reality which (though One) appears variously owing to delusion, taking on names and forms, attributes and changes, Itself always unchanged, like gold in its modifications – that Brahman art thou, meditate on this in thy mind.

श्रीमद आदि शंकराचार्य द्वारा रचित विवेक-चूड़ामणि
Vivek-Chudamani by Shrimad Adi Shankaracharya






अन्य श्लोक देखने के लिए उपरोक्त विडियो देखें 
हर हर शंकर