गीताप्रेस सुविचार भाग 1


प्रश्न:- वैराग्य किसे कहते हैं ?
उत्तर:- वैराग्य का अर्थ है संसार में प्रीती नही होना l

प्रश्न:- उपरान्ता किसे कहते हैं ?
उत्तर:- संसारी पदार्थों में वृत्ति न जाना ही उपरान्ता है l

भक्ति के मार्ग में प्रेम की प्रधानता है l

कर्म योग में स्वार्थ के त्याग की प्रधानता है l

ध्यान योग में आलस्य और विक्षेप के त्याग की प्रधानता है l

ज्ञान के मार्ग में परमात्मा के तत्व का ज्ञान प्रधान है l

किसी की भी आत्मा को दुःख पहुंचे ऐसे कार्य के नजदीक भी नही जाना चाहिए l





एक आदमी गरीब से गरीब है और एक आदमी राजा महाराजा है पर भगवान के घर में दोनों का एक समान ही सम्मान है l

राग, द्वेष ही समस्त अनर्थों के मूल हैं l

जितना राग, द्वेष कम हो गया उतना ही उत्थान समझना चाहिए और जितना ही राग, द्वेष अधिक है उतना ही पतन समझना चाहिए l

किसी के अवगुणों की आलोचना नही करनी चाहिए, दूसरों की आलोचना करने से पतन होता है l

यदि कोई हमारी निंदा करता है तो इससे हमे प्रसन्न होना चाहिए l

यदि कोई बिना अपराध किये हमारा बुरा करता है तो इसे भगवान का भेजा हुआ पुरस्कार समझ कर प्रसन्न होना चाहिए l

जैसे स्वार्थी आदमी कार्य करते समय यह सोचता है कि इस कार्य को करने से मुझे क्या लाभ होगा उसी तरह निष्काम कर्म करने वाले को यह
सोचना चाहिए कि इस कार्य को करने से दूसरों का क्या लाभ होगा ?

मित्भाषी बनना चाहिए अर्थात थोडा बोलना चाहिए l

सत्य, हितकारी और प्रिय वचन बोलना चाहिए l

अधिक बोलने से गलती हो सकती है l

जहाँ तक हो सके छोटे से छोटे जीव को भी हमारे द्वारा कोई हानि न पहुंचे इसका विशेष ध्यान रखना चाहिए l

गीता हमें त्याग सिखाती है – आसक्ति का त्याग, अहंकार का त्याग, ममता का त्याग l




हर एक भाई-बहन को त्याग सीखना चाहिए, स्वार्थ के त्याग के बिना कभी कल्याण नही हो सकता l

किसी के साथ व्यवहार करते समय हमे यह अवश्य सोचना चाहिए कि दूसरे का हित कैसे हो ?

जैसे लोभी आदमी यह सोचता रहता है कि पैसा कैसे मिले उसी प्रकार साधक को यह सोचते रहना चाहिए कि भगवान कैसे मिलें l

मान को विष के समान समझना चाहिए और अपमान को अमृत के समान समझना चाहिए l

हमे परमात्मा की प्राप्ति में देरी हो रही है, इसका कारण है कि हम में स्वार्थ का त्याग नही है, इसलिए स्वार्थ का त्याग करना चाहिए l

चाहे भक्त हो चाहे ज्ञानी हो – समता हो, क्षमा हो परन्तु अहंकार का नाश हो l

यदि समता नही है तो भक्त भक्त नही है और ज्ञानी ज्ञानी नही है l

यदि निंदा करनी है तो अपनी करो और स्तुति करनी है तो दूसरों की करो l


साधक को चाहिए कि वह अपने गुणों को छिपाए और अवगुणों को प्रकट करे और दूसरों के अवगुणों को छिपाए और गुणों को प्रकट करे, यही कल्याण का सरल मार्ग है l


from Amrit wachan booklet Gitapress

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