रामसुखदासजी सुविचार 5

जैसे बिना चाहे सांसारिक दुःख प्राप्त होता है, इसी प्रकार बिना चाहे सांसारिक सुख भी प्राप्त होता है, अत: स्वयं सांसारिक सुख की इच्छा कभी नही करनी चाहिए l
अपने लिए भोग और संग्रह की इच्छा करने से मनुष्य पशुओं से भी नीचे गिर जाता है और इच्छा का त्याग करने से वह देवताओं से भी ऊँचा उठ जाता है l
विचार करो जिससे आप सुख चाहते हो क्या वह पूर्ण रूप से सुखी है? क्या उसे कोई दुःख नही है ? दुखी व्यक्ति आपको सुखी कैसे बना देगा ?
जिसके भीतर कोई इच्छा नही होती, उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति प्रकृति अपने आप करती है l
यदि शांति चाहते हो तो “ऐसा होना चाहिए और ऐसा नही होना चाहिए” इसे छोड़ दो, और “जो भगवान चाहें वही होना चाहिये” उसको स्वीकार कर लो l
वस्तु के न मिलने से हम अभागे नही हैं, बल्कि भगवान के अंश होकर भी हम नाशवान वस्तु की इच्छा करते हैं, यही हमारा वास्तविक अभागापन है l 
भगवान जो कुछ करते हैं उसी में मेरा हित है, ऐसा विश्वास करके हर परिस्थिति में निश्चिन्त रहना चाहिए l
आप भगवान को नही देखते पर भगवान आपको निरंतर देख एहे हैं l
जब तक नाशवान वस्तुओं में सत्यता दिखेगी तब तक बोध नही होगा l
अभी जो धन प्राप्त हो रहा है वह वर्तमान कर्मो का फल नही अपितु प्रारब्ध (पूर्वजन्मो के कर्मो ) का फल है l वर्तमान में धन प्राप्ति के लिए जो बेईमानी की जाती है उसका फल तो आगे मिलेगा l
जैसे अपना दुःख दूर करने हेतु रूपये खर्च करते हैं वैसे ही दूसरों का दुःख दूर करने हेतु भी खर्च करो, अभी हमे रूपये रखने का अधिकार है l
मनुष्य का सम्मान एवं प्रतिष्ठा धन बढने से नही है, बल्कि धर्म बढने से है l




भगवान के नाम का जप और कीर्तन दोनों कलयुग से रक्षा करके उद्धार करने वाले हैं l
नाम जप में प्रगति होने की पहचान है, नाम जप छूटता ही नही l
नाम जप में रूचि नाम जप करने से ही होती है l
भगवान के नाम का जप सबके लिए है, और जीभ भी सबके मुख में होती है, परन्तु फिर भी कितने ही नरक में जाते हैं, आश्चर्य है l
भगवान का कौन सा नाम बढिया है, और भगवान का कौन सा रूप बढिया है, इसकी परीक्षा करने की बजाय अपनी परीक्षा करनी चाहिए, कि मुझे भगवान का कौन सा नाम और रूप अधिक प्रिय है l
दूसरों का बुरा करने से तो पाप लगता ही है, लेकिन दूसरों की बुराई कहने और सुनने में भी पाप लगता है l
भगवान से विमुख होना और संसार के सम्मुख होना, यही सबसे बड़ा पाप है l
किसी व्यक्ति को भगवान की और ले जाने के सामान कोई पुन्य नही है कोई दान नही है l 
पहले पाप कर लें फिर प्रायश्चित्त कर लेंगे ऐसे जान बूझ कर किये गए पाप प्रायश्चित्त से नष्ट नही होते
प्रत्येक मनुष्य को भगवान् की और चलना ही पड़ेगा, भले आज चले या अनेक जन्मो के बाद चले... तो फिर देरी क्यों ? 
संसार के कार्य में तो लाभ और हानि दोनों ही होते हैं, परन्तु भगवान के कार्य में लाभ ही लाभ होता है l
सांसार में असंतोष करने से पतन होता है और परमात्मा में असंतोष करने से उत्थान होता है l
प्रारब्ध का कार्य तो केवल सुख देने वाली या दुःख देने वाली परिस्थिति को उत्पन्न करना है, परन्तु उसमे सुखी या दुखी होना उसके चयन में मनुष्य स्वतंत्र है l
यह परमात्मा का विधान है कि अपने पाप से अधिक दंड कोई नही भोगता और जो दंड प्राप्त होता है वह अपने ही किसी न किसी पाप का फल होता है l 
संसार में प्रेम घटते ही परमात्मा में प्रेम हो जाता हि
भगवान के प्रति प्रेम होना, आकर्षण होना, खिंचाव होना ही भक्ति है l





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