गीताप्रेस सुविचार भाग 6



  • महाराज युधिष्ठिरने स्वर्गको ठुकरा दिया, पर अपने अनुगत कुत्तेका भी त्याग नहीं किया ।
  • पाण्डवोंने अपनेसे निम्नश्रेणी के राजा विराटकी नौकरी स्वीकार कर ली, पर धर्म का किंचिन्मात्र भी कभी त्याग नहीं किया ।
  • धैर्य, क्षमा, मनोनिग्रह, अस्तेय, बाहर-भीतर की पवित्रता, इन्द्रियनिग्रह, सात्त्विकबुद्धि, अध्यात्मविद्या, सत्यभाषण, और क्रोध न करना— ये दस सामान्य धर्मके लक्षण हैं ।
  • सर्वस्व जाय तो भी कभी किसी निमित्तसे कहीं किन्चिन्मात्र भी पाप न करे, न करवावे और न उसमे सहमत ही हो ।
  • महापुरुषों के प्रभाव से भगवान् की प्राप्ति होना — यह तो उनका अलौकिक प्रभाव है तथा सांसारिक कार्य की सिद्धि होना — लौकिक प्रभाव है ।
  • मरुभूमि में जल दीखता है, वास्तव में है नहीं । अत: कोई भी समझदार मनुष्य प्यासा होते हुए भी वहाँ जलके लिये नहीं जाता । इसी प्रकार संसार के विषयों में भी सुख प्रतीत होता है, वास्तव में है नहीं । ऐसा जाननेवाले विरक्त विवेकी पुरुष की सुख के लिये उसमे कभी प्रवृत्ति नहीं होती ।
  • आसक्ति वाले पुरुषके मनके अनुकूल होने पर राग और हर्ष तथा प्रतिकूल होने पर द्वेष और दुःख होता है ।
  • झूठसे बचने के लिये जहाँ तक हो, भविष्यके निश्चित वचन नहीं कहने चाहिये ।
  • संसार के किसी भी प्रदार्थ से आसक्ति नहीं करनी चाहिये; क्योंकि आसक्ति होने से अन्तकाल में उसका संकल्प हो सकता है । संकल्प होनेपर जन्म लेना पड़ता है ।
  • बार बार मन से पूछे कि “ बतला, तेरी क्या इच्छा है ?” और मनसे यह उत्तर मिले कि “कुछ भी इच्छा नहीं है ।“ इस प्रकार के अभ्यास से इच्छा का नाश होता है । यह निश्चित बात है ।
  • जिसने सत्य,अहिंसा,क्षमा,दया,समता,शान्ति,संतोष,सरलता,तितिक्षा, त्याग आदि शस्त्र धारण कर रखें हैं , उसका कोई भी शत्रु किंचिन्मात्र भी अनिष्ट नहीं कर सकता ।
  • विशुद्ध ईश्वर-प्रेम एक बहुत गोपनीय परम रहस्य की वस्तु है । उससे बढ़कर संसार में कोई उत्तम वस्तु नहीं ।
  • सदा-सर्वदा ईश्वर पर निर्भर रहना चाहिये । इससे धीरता, वीरता, गंभीरता, निर्भयता और आत्मबलकी वृद्धि होती है ।
  • ईश्वर की सत्ता पर प्रत्यक्षसे भी बढ़कर विश्वास रखे; क्योंकि ईश्वर पर जितना प्रबल विश्वास होगा, साधक उतना ही पाप से बचेगा और उसका साधन तीव्र होगा । 
  • जिसमे प्राणियों की हिंसा होती हो, ऐसी किसी चीज को व्यवहार में न लावें।
  • धन का प्राप्त होना यद्यपि अपने वश की बात नहीं है, तथापि मनुष्य को शरीरनिर्वाह के लिये कर्तव्यबुद्धिसे न्याययुक्त परिश्रम तो अवश्य करना चाहिये ।
  • अकर्मण्यता(कर्तव्यसे जी चुराना) महान हानिकारक है। पाप का प्रायश्चित है, किन्तु इसका नहीं । अकर्मण्यता का त्याग ही इसका प्रायश्चित है ।
  • भगवान् के नाम-रूपको याद रखते हुए ही सामाजिक, व्यवहारिक, आर्थिक आदि काम नि:स्वार्थ भाव से करे ; क्योंकि अपनी सारी चेष्टा नि:स्वार्थभाव से दूसरे के हित के लिये करने से ही कल्याण होता है । 
  • भगवत्प्राप्ति पवित्र और एकान्त देश का सेवन, सत्संग और स्वाध्याय , परमात्माका ध्यान और उसके नाम का जप, निष्कामभाव, ज्ञान, वैराग्य और उपरति — इनके सामान कोई भी साधन नहीं है ।
  • ब्रह्ममुहूर्त में उठाना चाहिये । यदि सोते- सोते ही सूर्योदय हो जाय तो दिनभर उपवास और जप करना चाहिये । 
  • सुननेवालों की इच्छा के बिना वक्ता को सत्संग के सहस्य की बातें नहीं सुनानी चाहिये । 
  • भगवान् के सामान अपना कोई हितैषी नहीं है, अत: अपने अधीन सब पदार्थों को और अपने को राजा बलि की भाँती भगवान् के समर्पण कर देना चाहिये । 
  • एकांत में मन को सदा यही समझाना चाहिये कि परमात्मा के चिंतन के सिवा किसी का चिंतन न करो; क्योंकि व्यर्थ चिंतन से बहुत हानि है । 
  • सोते समय भी भगवान् के नाम, रूपका स्मरण विशेषतासे करना चाहिये, जिससे शयन का समय व्यर्थ न जाय । शयनके समय को साधन बनाने के लिये सांसारिक संकल्पोंके प्रवाहको भुलाकर भगवान् के नाम,रूप,गुण,प्रभाव, चरित्रका चिंतन करते हुए ही सोना चाहिये । 
  • भोजन के समय स्वाद की और ध्यान नहीं देना चाहिये;क्योंकि यह पतन का हेतु है । स्वास्थ्य की ओर लक्ष्य रखना भी वैराग्य में कमी ही है ।


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