भगवान विष्णु के 24 अवतार ll24 Avatars of Lord Vishnu

जैसे अगाध सरोवरों से हजारों नाले निकलते हैं ,वैसे ही सत्तव्निधि भगवान् श्रीहरी के असंख्य अवतार हुआ करते हैंl


 ।.The four Kumars
2. Varaha 
...
3.Naarad Avtaar

4.Nar Naaraayan

5.Kapil Avtaar

6.Dattatrey Avtaar

7.Yagy Avtaar

8.RishabhDev Avtaar

9.Prithu Avtaar

10.Matsy Avtaar

11.Kurm Avtaar

12.Dhanvantari Avtaar

13.Mohini Avtaar

14. Narsingh Avtaar

15.Vaaman Avtaar

16.Parshuraam Avtaar

17.Vyaas Avtaar

18. Raam Avtaar

19.Balraam Avtaar

20. Krishn Avtaar

21. Buddh Avtaar

22. Kalki Avtaar

23. Hans Avtaar

24.Hayegreev Avtaar

. Four Kumars Avtaar

2.Vaarah Avtaar

3.Naarad Avtaar

4.Nar Naaraayan

5.Kapil Avtaar

6.Dattatrey Avtaar

7.Yagya Avtaar

8.RishabhDev Avtaar

9.Prithu Avtaar

10.Matsy Avtaar

11.Kurm Avtaar

12.Dhanvantari Avtaar

13.Mohini Avtaar

14. Narsingh Avtaar

15.Vaaman Avtaar

16.Parshuraam Avtaar

17.Vyaas Avtaar

18. Raam Avtaar

19.Balraam Avtaar

20. Krishn Avtaar

21. Buddh Avtaar

22. Kalki Avtaar

23. Hans Avtaar

24.Hayegreev Avtaar

ॐ ॐ


स एव प्रथमं देवः कौमारं सर्गमाश्रितः चचार दुश्चरं ब्रह्मा ब्रह्मचर्यमखण्डितम्।।५।। 

उन्ही प्रभु ने पहले कौमारसर्ग में सनक ,सनंदन ,सनातन और सनत्कुमार इन चार ब्राह्मणों के रूप में अवतार ग्रहण करके कठिन अखंड ब्रह्मचर्य का पालन किया ''ये चार ऋषि भगवान् के प्रथम अवतार हैं , ये चार कुमार शाश्वत मुक्तात्मा हैं । इनकी आयु बहुत अधिक होने पर भी ये पांच वर्ष के बालकों जैसे ही लगते हैं ।ये चारों जन्मजात शुद...्ध ,पवित्र हैं ।चारों कुमारों ने शिद्धेश्वरों की तरह सभी यौगिक सिद्धियों को प्राप्त तपस्या के द्वारा किया ।चारों कुमार बहुत प्रकांड विद्वान् हैं और मुक्ति,परम सत्य को समझाने में समर्थ हैं ।चारों कुमार निवृत्ति मार्ग के भी आचार्य हैं तथा चारों कुमार सांख्य दर्शन के आचार्य भी हैंऔर देवताओं के पूर्वज माने जाते हैं।'' ।The four Kumars are the first Avtaar of Shri Narayan , ,they are

1.Sanak Kumar
2.Sanandan Kumar
3.Sanaatan Kumar
4.Sanat Kumar
Kumars are eternaly liberated souls. All of them are pious and virtuous right from their birth .Despite being very senior in age the Four Kumars are said to wander the universe in the forms of small children.Not for a single moment in their minds, came the desires for worldly matters. They never face any danger to their lives and always remaine like a child of five years. Neither do they have mudane desires nor do they suffer from defects. These four Kumars, as siddhesvaras, had achieved all the yogic perfectional achievements ( siddhis ).These four Kumars are vastly learned, and they preached the philosophical way of understanding the Absolute Truth.They are possessed also of deep knowledge of the Sankhya philosophy. They are preceptors of the scriptures on duty and it is they that introduce the duties of the religion of Nivritti (inward contemplation), and cause them to flow in the worlds"
ॐ ॐ




द्वितीयं तु भवायास्य रसातलगतां महीम् उद्धरिष्यन्नुपादत्त यज्ञेशः सौकरं वपुः ।।६।।

दूसरी बार इस संसार के कल्याण के लिए समस्त यज्ञों के स्वामी उन भगवान् ने ही रसातल में गयी हुयी पृथ्वी को निकल लेन के विचार से सूकररूप ग्रहण किया
The second incarnation of Lord Narayan/Vishnu was in the form of Varaha or a boar to save the earth.Varaah is the second out of 24 Avatars of Lord Vishnu, in the form of a Boar. He appeared in order to defeat Hiranyaksh, a demon who had taken the Earth (Prithvi) and carried it to the bottom of what is described as the cosmic ocean in the story. The battle between Varaah and Hiranyaksha is believed to have lasted for a thousand years, which the former finally won. Varaha carried the Earth out of the ocean between his tusks and restored it to its place in the universe.The avatar symbolizes the resurrection of the Earth from a pralaya (deluge) and the establishment of a new kalpa (cosmic cycle).

वाराह अवतार भगवान् विष्णु /नारायण के २४ चौबीस अवतारों में से दूसरा अवतार है

ब्रह्मा जी से अजेयता और अमरता का वरदान पाकर हिरण्याक्ष उद्दंड और स्वेच्छाचारी बन गया। वह तीनों लोकों में अपने को सर्वश्रेष्ठ मानने लगा। दूसरों की तो बात ही क्या, वह स्वयं विष्णु भगवान को भी अपने समक्ष तुच्छ मानने लगा। हिरण्याक्ष ने गर्वित होकर तीनों लोकों को जीतने का विचार किया। वह हाथ में गदा लेकर इन्द्रलोक में जा पहुंचा। देवताओं को जब उसके पहुंचने की ख़बर मिली, तो वे भयभीत होकर इन्द्रलोक से भाग गए। देखते ही देखते समस्त इन्द्रलोक पर हिरण्याक्ष का अधिकार स्थापित हो गया। जब इन्द्रलोक में युद्ध करने के लिए कोई नहीं मिला, तो हिरण्याक्ष वरुण की राजधानी विभावरी नगरी में जा पहुंचा। उसने वरुण के समक्ष उपस्थित होकर कहा,'वरुण देव, आपने दैत्यों को पराजित करके राजसूय यज्ञ किया था। आज आपको मुझे पराजित करना पड़ेगा। कमर कस कर तैयार हो जाइए, मेरी युद्ध पिपासा को शांत कीजिए।' हिरण्याक्ष का कथन सुनकर वरुण के मन में रोष तो उत्पन्न हुआ, किंतु उन्होंने भीतर ही भीतर उसे दबा दिय। वे बड़े शांत भाव से बोले,'तुम महान योद्धा और शूरवीर हो। तुमसे युद्ध करने के लिए मेरे पास शौर्य कहां? तीनों लोकों में भगवान विष्णु को छोड़कर कोई भी ऐसा नहीं है, जो तुमसे युद्ध कर सके। अतः उन्हीं के पास जाओ। वे ही तुम्हारी युद्ध पिपासा शांत करेंगे।' वरुण का कथन सुनकर हिरण्याक्ष भगवान विष्णु की खोज में समुद्र के नीचे रसातल में जा पजुंचा। रसातल में पहुंचकर उसने एक विस्मयजनक दृश्य देखा। उसने देखा, एक वराह अपने दांतों के ऊपर धरती को उठाए हुए चला जा रहा है। वह मन ही मन सोचने लगा, यह वराह कौन है? कोई भी साधारण वराह धरती को अपने दांतों के ऊपर नहीं उठा सकता। अवश्य यह वराह के रूप में भगवान विष्णु ही हैं, क्योंकि वे ही देवताओं के कल्याण के लिए माया का नाटक करते रहते हैं। हिरण्याक्ष वराह को लक्ष्य करके बोल उठा,'तुम अवश्य ही भगवान विष्णु हो। धरती को रसातल से कहां लिए जा रहे हो? यह धरती तो दैत्यों के उपभोग की वस्तु है। इसे रख दो। तुम अनेक बार देवताओं के कल्याण के लिए दैत्यों को छल चुके हो। आज तुम मुझे छल नहीं सकोगे। आज में पुराने बैर का बदला तुमसे चुका कर रहूंगा।' यद्यपि हिरण्याक्ष ने अपनी कटु वाणी से गहरी चोट की थी, किंतु फिर भी भगवान विष्णु शांत ही रहे। उनके मन में रंचमात्र भी क्रोध पैदा नहीं हुआ। वे वराह के रूप में अपने दांतों पर धरती को लिए हुए आगे बढ़ते रहे।

हिरण्याक्ष भगवान वराह रूपी विष्णु के पीछे लग गया। वह कभी उन्हें निर्लज्ज कहता, कभी कायर कहता और कभी मायावी कहता, पर भगवान विष्णु केवल मुस्कराकर रह जाते। उन्होंने रसातल से बाहर निकलकर धरती को समुद्र के ऊपर स्थापित कर दिया। हिरण्याक्ष उनके पीछे लगा हुआ था। अपने वचन-बाणों से उनके ह्रदय को बेध रहा था। भगवान विष्णु ने धरती को स्थापित करने के पश्चात हिरण्याक्ष की ओर ध्यान दिया। उन्होंने हिरण्याक्ष की ओर देखते हुए कहा,'तुम तो बड़े बलवान हो। बलवान लोग कहते नहीं हैं, करके दिखाते हैं। तुम तो केवल प्रलाप कर रहे हो। मैं तुम्हारे सामने खड़ा हूं। तुम क्यों नहीं मुझ पर आक्रमण करते? बढ़ो आगे, मुझ पर आक्रमण करो।' हिरण्याक्ष की रगों में बिजली दौड़ गई। वह हाथ में गदा लेकर भगवान विष्णु पर टूट पड़ा। भगवान के हाथों में कोई अस्त्र शस्त्र नहीं था। उन्होंने दूसरे ही क्षण हिरण्याक्ष के हाथ से गदा छीनकर दूर फेंक दी। हिरण्याक्ष क्रोध से उन्मत्त हो उठा। वह हाथ में त्रिशूल लेकर भगवान विष्णु की ओर झपटा।

भगवान ने शीघ्र ही सुदर्शन का आह्वान किया— चक्र उनके हाथों में आ गया। उन्होंने अपने चक्र से हिरण्याक्ष के त्रिशूल के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। हिरण्याक्ष अपनी माया का प्रयोग करने लगा। वह कभी प्रकट होता, तो कभी छिप जाता, कभी अट्टहास करता, तो कभी डरावने शब्दों में रोने लगता, कभी रक्त की वर्षा करता, तो कभी हड्डियों की वर्षा करता। भगवान विष्णु उसके सभी माया कृत्यों को नष्ट करते जा रहे थे। जब भगवान विष्णु हिरण्याक्ष को बहुत नचा चुके, तो उन्होंने उसकी कनपटी पर कस कर एक चपत जमाई। उस चपत से उसकी आंखें निकल आईं। वह धरती पर गिरकर निश्चेष्ट हो गया। भगवान विष्णु के हाथों मारे जाने के कारण हिरण्याक्ष बैकुंठ लोक में चला गया। वह फिर भगवान के द्वार का प्रहरी बनकर आनंद से जीवन व्यतीत करने लगा।

भगवान विष्णु से प्रेम करना भी अच्छा है, बैर करना भी अच्छा है। जो प्रेम करता है, वह भी विष्णुलोक में जाता है, और जो बैर करता है, वह उनसे दण्ड पाकर विष्णुलोक में जाता है। प्रेम और बैर भगवान की दृष्टि में दोनों बराबर हैं। इसीलिए तो कहा जाता है कि भगवान सब प्रकार के भेदों से परे, बहुत परे।ॐ ॐ




तृतीयमृषिसर्गं वै देवर्षित्वमुपेत्य सः तन्त्रं सात्वतमाचष्ट नैष्कर्म्यं कर्मणां यतः।।७।।

ऋषियों की सृष्टि में उन्होंने देव ऋषि नारद के रूप में तीसरा अवतार ग्रहण किया और सात्वत तंत्र का {जिसे नारद -पांचरात्र कहते हैं } उपदेश किया, उसमे कर्मों के द्वारा किस प्रकार कर्मबंधन से मुक्त मिलती है, इसका वर्णन है ।।७।।

Lord Narayan/Vishnu's third incarnation was in the form of Naarad, assuming which Lo...rd Narayan/Vishnu gave counsel in the form of Naarad Panch Raatr Upadesh to relieve the man from the bonds of Karm.According to legend, Narada is regarded as the Manasaputra, referring to his birth 'from the mind of Brahma.

Naarad means Naar = Wisdom + Da = Giver .Naarad, a divine sage , plays a prominent role in a number of the Puranic texts,he is in the category of a devarishi.

श्रीमद्भागवत महापुराणका कथन है, सृष्टि में भगवान ने देवर्षि नारद के रूप में तीसरा अवतार ग्रहण किया और सात्वततंत्र (जिसे <न् द्धह्मद्गद्घ="द्वड्डद्बद्यह्लश्र:नारद-पाञ्चरात्र">नारद-पाञ्चरात्र भी कहते हैं) का उपदेश दिया जिसमें सत्कर्मो के द्वारा भव-बंधन से मुक्ति का मार्ग दिखाया गया है।
नारद ब्रह्मा के सात मानस पुत्रो मे से एक है। उन्होने कठिन तपस्या से ब्रह्मर्षि पद प्राप्त किया है। देवर्षि नारद धर्म के प्रचार तथा लोक-कल्याण हेतु सदैव प्रयत्नशील रहते हैं। शास्त्रों में इन्हें भगवान का मन कहा गया है। इसी कारण सभी युगों में, सब लोकों में, समस्त विद्याओं में, समाज के सभी वर्गो में नारदजी का सदा से प्रवेश रहा है। मात्र देवताओं ने ही नहीं, वरन् दानवों ने भी उन्हें सदैव आदर दिया है। समय-समय पर सभी ने उनसे परामर्श लिया है।

श्रीमद्भगवद्गीता के दशम अध्याय के २६वें श्लोक में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने इनकी महत्ता को स्वीकार करते हुए कहा है - ''देवर्षीणाम्चनारद:।.'' अर्थात देवर्षियों में मैं नारद हूं। महाभारत के सभापर्व के पांचवें अध्याय में नारदजी के व्यक्तित्व का परिचय इस प्रकार दिया गया है - देवर्षि नारद वेद और उपनिषदों के मर्मज्ञ, देवताओं के पूज्य, इतिहास-पुराणों के विशेषज्ञ, पूर्व कल्पों (अतीत) की बातों को जानने वाले, न्याय एवं धर्म के तत्त्‍‌वज्ञ, शिक्षा, व्याकरण, आयुर्वेद, ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान, संगीत-विशारद, प्रभावशाली वक्ता, मेधावी, नीतिज्ञ, कवि, महापण्डित, बृहस्पति जैसे महाविद्वानोंकी शंकाओं का समाधान करने वाले, धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष के यथार्थ के ज्ञाता, योगबलसे समस्त लोकों के समाचार जान सकने में समर्थ, सांख्य एवं योग के सम्पूर्ण रहस्य को जानने वाले, देवताओं-दैत्यों को वैराग्य के उपदेशक, क‌र्त्तव्य-अक‌र्त्तव्य में भेद करने में दक्ष, समस्त शास्त्रों में प्रवीण, सद्गुणों के भण्डार, सदाचार के आधार, आनंद के सागर, परम तेजस्वी, सभी विद्याओं में निपुण, सबके हितकारी और सर्वत्र गति वाले हैं।

भगवान की अधिकांश लीलाओं में नारदजी उनके अनन्य सहयोगी बने हैं। वे भगवान के पार्षद होने के साथ देवताओं के प्रवक्ता भी हैं। नारदजी वस्तुत: सही मायनों में देवर्षि हैं।

ॐ ॐ


तुर्ये धर्मकलासर्गे नरनारायणावृषी भूत्वात्मोपशमोपेतमकरोद्दुश्चरं तपः ।।८।।

धर्मपत्नी मूर्ति से उन्होंने नर -नारायण के रूप में चौथा अवतार ग्रहण किया इस अवतार में उन्होंने ऋषि बन कर मन और इन्द्रियों का सर्वथा संयम करके बड़ी कठिन तपस्या की

In the fourth incarnation Narayan/Vishnu took his Birth from the womb of Murti, the wife of Dharm and having assumed the form of Nar-Naarayan practised hard mortification.

नर नारायण नाम के दो ऋषियों के रूप में भगवान् नारायण ने चौथा अवतार लिया। नर नारायण के रूप में भगवान् ने बद्रीनाथ नाम के स्थान पर बहुत कठिन तपस्या की। वे धर्म और मूर्ति के पुत्र थे ,इनका अवतार संसार के कल्याण और दुष्टों के विनाश के लिए हुआ था। उन्होंने सहस्रकवच, नाम के राक्षस का संहार भी किया। श्रीमद्भागवत पुराण में इनसे उर्वशी के जन्म की कथा दी है -जब नर और नारायण तपस्या कर रहे थे तो उनकी तपस्या से डर कर इंद्र ने कामदेव, उसके साथी वसंत और अप्सराओं को उनकी तपस्या तोड़ने के लिए भेजा। नारायण ने अपनी जंघा पर एक फूल रखा जिससे उर्वशी जैसी सुन्दर अप्सरा प्रकट हुयी, उर्वशी इंद्र की भेजी सब अप्सराओं से अधिक सुन्दर थी, उसे भी उन्होंने उनसब के साथ भेज दिया, वे भी अपमानित होकर उर्वशी को अपनी साथ ले गये। नर शेष के अवतार और नारायाण विष्णु के अवतार हैं, महाभारत में अर्जुन को नर और कृष्ण को नारायण कहा गया।

In the concept of Nar-Naaraayan, the human soul Nar is the eternal companion of the Divine Naaraayan .Mahabharat identifies Krishna with Narayan and Arjun - with Nar.They are the sons of Dharm by Murti or Ahimsa and emanations of Vishnu.
Naaraayan is Vishnu while Nar is Shesh.

The twins were sons of Dharm, the son of Brahma and his wife Murti (Daughter Of Daksh) or Ahimsa.They live at Badrika performing severe austerities and meditation for the welfare of the world. These two inseparable sages took avatars on earth for the welfare of mankind and to punish the wicked ones. The sages defeated a demon called Sahasrakavach ("one with a thousand armours").

The Bhagavat Puran tells the story of the birth of Urvashi from the sages Nar-Naaraayan. Once, sages Nar-Naaraayan were meditating in the holy shrine of Badrinath situated in the Himalayas. Their penances and austerities alarmed the gods, so Indra, the King of Devas, sent Kamadeva, Vasanta (spring) and apsaras (nymphs) to inspire them with passion and disturb their devotions. The sage Naaraayan took a flower and placed it on his thigh. Immediately there sprung from it a beautiful nymph whose charms far excelled those of the celestial nymphs, and made them return to heaven filled with shame and vexation. Narayana sent this nymph to Indra with them, and from her having been produced from the thigh (uru in Sanskrit) of the sage, she was called Urvashi.

ॐ ॐ



पञ्चमः कपिलो नाम सिद्धेशः कालविप्लुतम् प्रोवाचासुरये साङ्ख्यं तत्त्वग्रामविनिर्णयम् ।।९।।

पांचवें अवतार में वे सिद्धों के स्वामी कपिल के रूप में प्रकट हुए और तत्त्वों का निर्णय करने वाले सांख्य शास्त्र का जो समय के फेर से लुप्त हो गया था, आसुरी नामक ब्राह्मण को उपदेश दिया l

In his fifth incarnation as Kapil, Narayan/Vishnu gave Saankhy instructions to mother Devhooti.

भागवत पुराण के अनुसार कपिल के माता पिता कर्दम ऋषि और देवहुति थे । जब कर्दम ऋषि ने संन्यास लेकर गृह त्याग कर दिया तब कपिल जी ने अपनी माता को योग के ज्ञान का उपदेश दिया था जिससे उनकी मुक्ति हो गयी। कपिल ऋषि के वंशज आज भी पंजाब में पाए जा सकते हैं। कपिल जी के सांख्य योग को भगवन कृष्ण ने उद्धव को दिया था, उद्धव गीता में ।

कपिल जी के बारे में भगवद्गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं ..... ''सिद्धों में मैं कपिल हूँ । ''

ऋषि कपिल का गंगा के पृथ्वी पर आगमन से सीधा सम्बन्ध है। राजा सगर ने अपने साम्राज्य की समृद्धि के लिए एक अनुष्ठान करवाया । एक अश्व उस अनुष्ठान का एक अभिन्न हिस्सा था जिसे इंद्र ने ईर्ष्यावश चुरा लिया। सगर ने उस अश्व की खोज के लिए अपने सभी पुत्रों को पृथ्वी के चारों तरफ भेज दिया। उन्हें वह ध्यानमग्न कपिल ऋषि के निकट मिला, यह मानते हुए कि उस अश्व को कपिल ऋषि द्वारा ही चुराया गया है, वे उनका अपमान करने लगे और उनकी तपस्या को भंग कर दिया। ऋषि ने कई वर्षों में पहली बार अपने नेत्रों को खोला और सगर के बेटों को देखा, इस दृष्टिपात से वे सभी के सभी साठ हजार जलकर भस्म हो गए । अंतिम संस्कार न किये जाने के कारण सगर के पुत्रों की आत्माएं प्रेत बनकर विचरने लगीं । जब दिलीप के पुत्र और सगर के एक वंशज भगीरथ ने इस दुर्भाग्य के बारे में सुना तो उन्होंने प्रतिज्ञा की कि वे गंगा को पृथ्वी पर लायेंगे ताकि उसके जल से सगर के पुत्रों के पाप धुल सकें और उन्हें मोक्ष प्राप्त हो सके । भगीरथ ने गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए ब्रह्मा जी की तपस्या कीऔर गंगा को पृथ्वी पे लाये ।

In Bhagavat Puran, it is mentioned that his parents were Kardam Muni and Devhuti. After his father left home, Kapil instructed his mother, Devhuti in the philosophy of yog and devotional worship of Lord Vishnu, enabling her to achieve liberation (moksha). Kapil's Sankhya is also given by Krishna to Uddhav in Book 11 of the Bhagavat Puran, a passage also known as the "Uddhav Gita".Kapila's descendants can still be found in Punjab .Kapil is also mentioned by Krishna in the Bhagavad Gita:
Among perfected beings I am the sage Kapil.(10.26)

Kapil is a major figure in the story associated with the descent of the Ganga river from heaven. King Sagar, an ancestor of Ram, had performed the Aswamedha yagya ninety-nine times. On the hundredth time the horse was sent around the earth Indra, the King of Heaven, grew jealous and kidnapped the horse, hiding it in the hermitage of Kapila.

The 60,000 sons of Sagara found the horse, and believing Kapil to be the abductor assaulted him. Kapil turned his assailants to ashes. Anshuman, a grandson of King Sagar, came to Kapil begging him to redeem the souls of Sagar's 60,000 sons. Kapil replied that only if the Ganga descended from heaven and touched the ashes of the 60,000 would they be redeemed.The Ganga was eventually brought to earth, redeeming the sons of Sagar, through the tapasya of King Bhagirath.





षष्ठमत्रेरपत्यत्वं वृतः प्राप्तोऽनसूयया आन्वीक्षिकीमलर्काय प्रह्लादादिभ्य ऊचिवान् ।।१०।।

अनसूया के वर मांगने पर छठे अवतार में वे अत्री की संतान -दत्तात्रेय हुए ।
इस अवतार में उन्होंने अलर्क एवं प्रहलाद आदि को ब्रह्मज्ञान का उपदेश किया l

When Ansuya asked for boon, The Lord came as Dattatreya Ji in her House. God in His sixth incarnation as Dattatreya extended His counsel to Alark and Prahlaad etc.

ब्रह्माजी के मानसपुत्र महर्षि अत्रि इनके पिता सती अनुसूया इनकी माता थीं। भगवान दत्तात्रेय का प्रादुर्भाव महर्षि अत्रि के चरम तप का पुण्यफल तथा सती अनुसूयाके परम पतिव्रता होने का सुफल है। वे योगियों के परम ध्येय होने के कारण सर्वत्र गुरुदेव कहे जाते हैं।

प्राचीनकाल से ही सद्गुरु भगवान दत्तात्रेय ने अनेक ऋषि-मुनियों तथा विभिन्न सम्प्रदायों के प्रवर्तक आचार्यो को सद्ज्ञान का उपदेश देकर कृतार्थ किया है।
इन्होंने परशुरामजी को श्रीविद्या-मंत्र प्रदान किया था।
त्रिपुरारहस्य में दत्त-भार्गव-संवाद के रूप में अध्यात्म के गूढ रहस्यों का उपदेश मिलता है।
ऐसा भी कहा जाता है कि शिवपुत्र कार्तिकेय को दत्तात्रेय जी ने अनेक विद्याएं प्रदान की थीं।
भक्त प्रह्लाद को अनासक्ति-योग का उपदेश देकर उन्हें अच्छा राजा बनाने का श्रेय इनको ही जाता है। सांकृति-मुनिको अवधूत मार्ग इन्होंने ही दिखाया।
कार्तवीर्यार्जुन को तन्त्र विद्या एवं नार्गार्जुन को रसायन विद्या इनकी कृपा से ही प्राप्त हुई थी।
गुरु गोरखनाथ को आसन, प्राणायाम, मुद्रा और समाधि-चतुरंग योग का मार्ग भगवान दत्तात्रेय जी ने ही बताया था।

परम दयालु भक्तवत्सल भगवान दत्तात्रेय जी आज भी अपने शरणागत का मार्गदर्शन करते हैं और सारे संकट दूर करते हैं। मार्गशीर्ष-पूर्णिमा इनकी प्राकट्य तिथि होने से हमें अंधकार से प्रकाश में आने का सुअवसर प्रदान करती है।
भगवान दत्तात्रेय का असाधारण कार्य है- अखण्ड रूप से ज्ञानदानकरते रहना। इस प्रकार ये गुरु के रूप में अपने भक्तों को अध्यात्म-ज्ञान का उपदेश देकर सांसारिक दुख से मुक्त करके उनकी अविद्या की निवृत्ति करते हैं। ये भक्त के हृदयाकाश में प्रकाशित होकर उसके अज्ञान-रूपी अंधकार को नष्ट कर देते हैं।

In the Nath tradition, Dattatreya is also recognized as an Avatar or incarnation of Shiva and as the Adi-Guru (First Teacher) of the Adinath Sampradaya of the Nathas. Dattatreya is credited as the author of the Tripura Rahasya , a treatise on Advait Vedant. Dattatreya was born to the sage Atri, and Ansuya Sati Anusuya was the wife of the great sage Attri and the mother of Bhagwan Dattatreya, she used to live in an Ashram by the Mandaakini river ( which had came down to earth due to her hard austerities ), in Chitrakoot, Madhya Pradesh( present day).

ॐॐ





ततः सप्तम आकूत्यां रुचेर्यज्ञोऽभ्यजायत स यामाद्यैः सुरगणैरपात्स्वायम्भुवान्तरम् ।।११।।

सातवीं बार रुचि प्रजापति की आकूति नामक पत्नी से यज्ञ के रूप में उन्होंने अवतार ग्रहण किया और अपने पुत्र याम आदि देवताओं के साथ स्वायम्भुव मन्वन्तर की रक्षा की From the womb of Akuti, the wife of Ruchi Prajapati, the seventh incarnation of God was Yagya, who along with yaam and other gods protected Swayambhu Manu from the demons.Yagya or Yagneshwar("Lord of yagya") is mentioned as an Avatar of the Hindu god Vishnu in Bhagavata Puran. As Yagya, Vishnu is the embodiment of the fire sacrifice ritual or yagya.The Bhagavat Puran, Devi Bhaagwat and Garud Puran list Yagya or Syavambhuv as an avatar of Vishnu or Adi-Narayan. Yagya is the son of Prajapati Ruchi and Akuti, the daughter of Svayambhuv Manu - the first Manu (progenitor of mankind). During the period of Svayambhuv Manu (Svayambhuv Manvantar), there was no qualified Indra, the post of the king of Svarg (Heaven) and king of Devas. So, Vishnu incarnated as Yagya and held the post of Indra.Hence he was also the Indra of the Svayambhuv Manvantar, era of Svayambhuv Manu.The commenter on the Vedas - Sayan describes Vishnu as the lord of yagya or the sacrificer himself. Even the Bhagvad Gita associates Vishnu to yagya (sacrifice). Performing sacrifices is considered to equivalent to pleasing Vishnu. The Vishnu Sahasranam ("Thousand names of Vishnu") also relates Yagya as a name of Vishnu.यज्ञ या यज्ञेश्वर {यज्ञ के स्वामी /ईश्वर } भगवान् नारायण का अवतार माने जाते हैं Iभागवत पुराण ,देवी भागवत और गरुड़ पुराण के अनुसार यज्ञ को आदि -नारायण का अवतार माना गया है I यज्ञ प्रजापति रुचि और आकूति के पुत्र हैं आकूति स्वयंभुव मनु की पुत्री थी I स्वयंभुव मन्वंतर के समय में कोई योग्य इंद्र नही था ,इसलिए भगवान् नारायण यज्ञ के रूप में अवतारित होकर स्वर्ग के राजा बने Iसायन के अनुसार नारायण साक्षात यज्ञ ही हैं Iभगवत गीता भी यज्ञ को नारायण से जोडती है I विष्णु सहस्रनाम में भी भगवान् के हज़ार नामों में एक नाम यज्ञ भी है ॐ ॐ




प्रियव्रत के प्रिय पुत्र राजा आग्नीध्र से नाभि का जन्म हुआ। नाभि आप ही की तुष्टि के लिये यज्ञ कर्म कर रहे थे। उसी यज्ञ में उन्हें सभी अभीष्टों के दाता आपके दर्शन हुए। मुनीश्वरों ने उस यज्ञ में प्रकट हुए आपकी स्तुति की और राजा नाभि के लिये आपके समान ही पुत्र की याचना की। हे विश्वमूर्ति! तब आपने कहा कि ' मै स्वयं ही जन्म लूंगा'। इस प्रकार कह कर उस यज्ञाग्नि में आप अन्तर्धान हो गये। नाभि की प्रिय पत्नी मेरुदेवी से फिर अंश रूप से ऋषभ नाम वाले आप प्रकट हुए। आपके असामान्य अलौकिक गुणों के प्रभाव से सभी आनन्द के भर गये।
आप स्वयं ही त्रिलोक का भार वहन करने वाले हैं। आपके ऊपर राज्य का भार डाल कर नाभि, मेरुदेवी के संग तपोवन को चले गये। वहां आपकी ही सेवा अर्चना करते हुए वे परम आनन्द दायक आपके ही धाम वैकुण्ठ को प्राप्त हो गये। आपके उत्कर्ष से ईर्ष्या के वशीभूत हुए इन्द्र ने इस अजनाभ वर्ष के ऊपर वर्षा नहीं की। तब आप अपनी योग शक्ति के व्यवधान से अपने अजनाभवर्ष पर सुन्दर वृष्टि लाये। विजित इन्द्र ने तब आपको सुन्दरी जयन्ती प्रदान की। स्वयं अपनी आत्मा में रमण करने के आशय वाले आपने उससे विवाह कर के सौ पुत्रों को जन्म दिया जिनमें से राजा भरत सब से बडे थे। उन पुत्रों में से नौ तो योगिराज हो गये और दूसरे नौ भारत वर्ष के विभिन्न खन्डों पर राज्य करने लगे। बाकी इक्यासी पुत्र अपने तपोबल से ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए। तब आप (ऋषभ देव) मुनीश्वरों के सम्मुख अपने पुत्रों को विरक्ति भक्ति सहित मुक्ति मार्ग का उपदेश दे कर स्वयं परमहंस वृत्ति को प्राप्त हुए और आपने जड उन्मत्त और पिशाचों के आचरण को अपना लिया। परम आत्मस्वरूप होते हुए भी आप अन्य लोगों को उपदेश देते रहे। सभी से तिरस्कृत होते हुए भी विकारहीन, परमानन्द रस में अभिलीन हुए आप पूरी पृथ्वी पर विचरते रहे। सर्प की वृत्ति और गौ मृग एवं काक की जीवन चर्या को चिर काल तक निभाते हुए आप स्वयं के परम स्वरूप को प्राप्त हो गये। फिर कुटकाचल पर दावाग्नि के द्वारा आपने अपने शरीर को भस्म कर दिया। हे वातनाथ! मेरे तापों को दूर करें।King Priyavrata had a dear son named Asgnidhra king, of whom Naabhi was born. While Naabhi was performing a Yanjya, for propitiating Thee, he had a vision of Thee, the bestower of desired boons to devotees. O Lord of the whole universe! The sages sang Thy praises and the king prayed to Thee for a son like Thyself. Thou then declared that Thou would Thyself be born as his son and then Thou disappeared in the sacrificial fire.Then Thou were born as a part incarnation with the name Rishabha to Merudevi the wife of Naabhi. Thou delighted everyone with sublime virtues and glory not commonly seen in the world. Naabhi entrusted the administration of the kingdom to Thee, who are the ruler of the three worlds and went away to the forest with his wife Merudevi to lead an ascetic life. Worshipping Thee there, he attained to Thy state of Supreme Bliss. Owing to jealousy at the prosperity of the world generated by Thy (Rishabha's) greatness, Indra withheld rain from the continent Ajanaabha. Thereupon Thou by Thy yogic power brought enough rain on this Thy continent. Thus defeated, Indra bestowed beautiful Jayanti on Thee as Thy wife. Though Thou were ever absorbed in the Aatman, Thou begot in her one hundred sons, the eldest of whom was king Bharat. Nine of them became great yogis, and another nine ruled over the various regions of Bhaaaratavarsha. Thy remaining eightyone sons attained Braahminhood by the power of their austerities. Afterwards Thou instructed Thy sons along with the great ascetics in the path of salvation through renunciation and devotion. Then adopting the life of a total renunciate Thou moved about behaving like an idiot, a mad man or a ghost. Though Thou had attained complete identity with the Brahman, Thou continued to impart knowledge to others. Thou were free from attachment and aversion, though Thou were treated with indifference.Thou wandered all over the earth completely absorbed in the bliss of the Supreme self.Observing the ways of the life of a python, a cow, a deer, and a crow, Thou wandered about for long, attaining identity with the Supreme Brahman. Thy body then perished in the forest fire in the Coorg mountains. O Lord of Guruvaayur! Deign to eradicate my afflictions. The 8th incarnation of the Lord is RishabhDev Maharaj

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रूपं स जगृहे मात्स्यं चाक्षुषोदधिसम्प्लवे नाव्यारोप्य महीमय्यामपाद्वैवस्वतं मनुम् ।।१४।।

चाक्षुष मन्वंतर में जब सारी पृथ्वी समुद्र में डूब रही थी, तब उन्होंने मत्स्य क रूप में दसवां अवतार ग्रहण किया और पृथ्वी रूपी नौका पर बिठा कर अगले मन्वंतर के अधिपति वैवस्वत मनु की रक्षा की
In His tenth incarnation as Matsya or the fish God saved Manu and all the seeds from drowing in the water of the earth. Matsya (Sanskrit: मत्स्य) was the first Avatar of Vishnu in Hinduism. The great flood finds myth was taken from Hindu scriptures actually. where in the Matsya Avatar takes place to save the pious and the first man, Manu and advices him to build a giant boat.According to the Matsya Puran, the king, Satyavrata who later was known as Manu was washing his hands in a river when a little fish swam into his hands and pleaded with him to save its life. He put it in a jar, which it soon outgrew. He then moved it to a tank, a river and then finally the ocean but to no avail. The fish then revealed himself to be Vishnu and told him that a deluge would occur within seven days that would destroy all life. Therefore, Satyavrat was instructed to take "all medicinal herbs, all the varieties of seeds, and accompanied by the seven saints” along with the serpent Vasuki and other animals. Lord Matsya is generally represented as a four-armed figure with the upper torso of a man and the lower of a fish.

मत्स्य अवतार : मत्स्य (मछ्ली) के अवतार में भगवान विष्णु ने एक ऋषि को सब प्रकार के जीव-जन्तु एकत्रित करने के लिये कहा और पृथ्वी जब जल में डूब रही थी, तब मत्स्य अवतार में भगवान ने उस ऋषि की नांव की रक्षा की थी। कल्पांत के पूर्व एक पुण्यात्मा राजा तप कर रहा था। राजा का नाम सत्यव्रत था। सत्यव्रत पुण्यात्मा तो था ही, बड़े उदार ह्रदय का भी था। प्रभात का समय था। सूर्योदय हो चुका था। सत्यव्रत कृतमाला नदी में स्नान कर रहा था। उसने स्नान करने के पश्चात जब तर्पण के लिए अंजलि में जल लिया, तो अंजलि में जल के साथ एक छोटी-सी मछली भी आ गई। सत्यव्रत ने मछली को नदी के जल में छोड़ दिया। मछली बोली, 'राजन! जल के बड़े-बड़े जीव छोटे-छोटे जीवों को मारकर खा जाते हैं। अवश्य कोई बड़ा जीव मुझे भी मारकर खा जाएगा। कृपा करके मेरे प्राणों की रक्षा कीजिए।' सत्यव्रत के ह्रदय में दया उत्पन्न हो उठी। उसने मछली को जल से भरे हुए अपने कमंडलु में डाल लिया। आश्चर्य! एक रात में मछली का शरीर इतना बढ़ गया कि कमंडलु उसके रहने के लिए छोटा पड़ने लगा। दूसरे दिन मछली सत्यव्रत से बोली। 'राजन! मेरे रहने के लिए कोई दूसरा स्थान ढूंढ़िए, क्योंकि मेरा शरीर बढ़ गया है। मुझे घूमने-फिरने में बड़ा कष्ट होता है।' सत्यव्रत ने मछली को कमंडलु से निकालकर पानी से भरे हुए मटके में रख दिया। आश्चर्य! मछली का शरीर रात भर में ही मटके में इतना बढ़ गया कि मटका भी उसके रहने कि लिए छोटा पड़ गया। दूसरे दिन मछली पुनः सत्यव्रत से बोली, 'राजन, मेरे रहने के लिए कहीं और प्रबंध कीजिए, क्योंकि मटका भी मेरे रहने के लिए छोटा पड़ रहा है।' तब सत्यव्रत ने मछली को निकालकर एक सरोवर में डाल किया, किंतु सरोवर भी मछली के लिए छोटा पड़ गया। इसके बाद सत्यव्रत ने मछली को नदी में और फिर उसके बाद समुद्र में डाल किया। आश्चर्य! समुद्र में भी मछली का शरीर इतना अधिक बढ़ गया कि मछली के रहने के लिए वह छोटा पड़ गया। अतः मछली पुनः सत्यव्रत से बोली, 'राजन! यह समुद्र भी मेरे रहने के लिए उपयुक्त नहीं है। मेरे रहने की व्यवस्था कहीं और कीजिए।' सत्यव्रत विस्मित हो उठा। उसने आज तक ऐसी मछली कभी नहीं देखी थी। वह विस्मय-भरे स्वर में बोला, 'मेरी बुद्धि को विस्मय के सागर में डुबो देने वाले आप कौन हैं? आपक का शरीर जिस गति से प्रतिदिन बढ़ता है, उसे दृष्टि में रखते हुए बिना किसी संदेह के कहा जा सकता है कि आप अवश्य परमात्मा हैं। यदि यह बात सत्य है, तो कृपा करके बताइए के आपने मत्स्य का रूप क्यों धारण किया है?' सचमुच, वह भगवान श्रीहरि ही थे। मत्स्य रूपधारी श्रीहरि ने उत्तर दिया, 'राजन! हयग्रीव नामक दैत्य ने वेदों को चुरा लिया है। जगत में चारों ओर अज्ञान और अधर्म का अंधकार फैला हुआ है। मैंने हयग्रीव को मारने के लिए ही मत्स्य का रूप धारण किया है। आज से सातवें दिन पृथ्वी प्रलय के चक्र में फिर जाएगी। समुद्र उमड़ उठेगा। भयानक वृष्टि होगी। सारी पृथ्वी पानी में डूब जाएगी। जल के अतिरिक्त कहीं कुछ भी दृष्टिगोचर नहीं होगा। आपके पास एक नाव पहुंचेगी, आप सभी अनाजों और औषधियों के बीजों को लेकर सप्तॠषियों के साथ नाव पर बैठ जाइएगा। मैं उसी समय आपको पुनः दिखाई पड़ूंगा और आपको आत्मतत्व का ज्ञान प्रदान करूंगा।' सत्यव्रत उसी दिन से हरि का स्मरण करते हुए प्रलय की प्रतीक्षा करने लगे। सातवें दिन प्रलय का दृश्य उपस्थित हो उठा। उमड़कर अपनी सीमा से बाहर बहने लगा। भयानक वृष्टि होने लगी। थोड़ी ही देर में जल ही जल हो गया। संपूर्ण पृथ्वी जल में समा गई। उसी समय एक नाव दिखाई पड़ी। सत्यव्रत सप्तॠषियों के साथ उस नाव पर बैठ गए, उन्होंने नाव के ऊपर संपूर्ण अनाजों और औषधियों के बीज भी भर लिए। नाव प्रलय के सागर में तैरने लगी। प्रलय के उस सागर में उस नाव के अतिरिक्त कहीं भी कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा था। सहसा मत्स्यरूपी भगवान प्रलय के सागर में दिखाई पड़े। सत्यव्रत और सप्तर्षिगण मतस्य रूपी भगवान की प्रार्थना करने लगे,'हे प्रभो! आप ही सृष्टि के आदि हैं, आप ही पालक है और आप ही रक्षक ही हैं। दया करके हमें अपनी शरण में लीजिए, हमारी रक्षा कीजिए।' सत्यव्रत और सप्तॠषियों की प्रार्थना पर मत्स्यरूपी भगवान प्रसन्न हो उठे। उन्होंने अपने वचन के अनुसार सत्यव्रत को आत्मज्ञान प्रदान किया, बताया,'सभी प्राणियों में मैं ही निवास करता हूं। न कोई ऊंच है, न नीच। सभी प्राणी एक समान हैं। जगत नश्वर है। नश्वर जगत में मेरे अतिरिक्त कहीं कुछ भी नहीं है। जो प्राणी मुझे सबमें देखता हुआ जीवन व्यतीत करता है, वह अंत में मुझमें ही मिल जाता है।'

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material from the earth.He is mainly associated with the legend of his chasing the earth goddess, Prithvi, who fled in the form of a cow and eventually agreed to yield her milk as the world's grain and vegetation. The epic Mahabharata and text Vishnu Puran describes him as a part Avatar (incarnation) of Vishnu.He is also called Pruthu, Prithi and Prithu Vainya, literally, Prithu — the son of Ven. Prithu is "celebrated as the first consecrated king, from whom the earth received her (Sanskrit) name Prithvi."The birth of Prithu is without female intervention. Thus being a ayonij ("born without (the participation) of the yoni"), Prithu is untouched by desire and ego and can thus control his senses to rule dutifully upholding Dharm. To end the famine by slaying the earth and getting her fruits, Prithu chased the earth (Prithvi) who fled as a cow. Finally, cornered by Prithu, the earth states that killing her would mean the end of his subjects too. So Prithu lowered his weapons and reasoned with the earth and promised her to be her guardian. Finally, Prithu milked her using Manu as a calf, and received all vegetation and grain as her milk, in his hands for welfare of humanity.

The epic Mahabharat states that Vishnu crowned Prithu as the sovereign and entered the latter's body so that everyone bows to the king as to god Vishnu. Now, the king was "endowed with Vishnu's greatness on earth". Further, Dharm (righteousness), Shri (goddess of wealth, beauty and good fortune) and Arth (purpose, material prosperity) established themselves in PrithuBhagavata Purana further states that Prithu performed ninety-nine ashwamedh yagnas (horse-sacrifices), but Indr, kings of the -gods, disturbed Prithu's hundredth one. The yagya was abandoned, Vishnu gave Prithu his blessings and Prithu forgave Indra for the latter's theft of the ritual-horse. It also states that the Sanatkumaras, the four sage-incarnations of Vishnu, preached Prithu about devotion to Vishnu.

After governing his kingdom for a long time, Prithu left with his wife Archi, to perform penance in the forest in his last days.ॐ ॐ




सुरासुराणामुदधिं मथ्नतां मन्दराचलम् दध्रे कमठरूपेण पृष्ठ एकादशे विभुः

जिस समय देवता और दैत्य समुद्रमंथन कर रहे थे, उस समय ग्यारहवां अवतार धारण करके कच्छप रूप से भगवान् ने मंदरांचल को अपनी पीठ पर धारण किया ।
पद्मपुराण (ब्रह्मखड, 8) में वर्णन हैं कि इंद्र ने दुर्वासा द्वारा प्रदत्त पारिजातक माला का अपमान किया तो कुपित होकर दुर्वासा ने शाप दिया, तुम्हारा वैभव नष्ट होगा। परिणामस्वरूप लक्ष्मी समुद्र में लुप्त हो गई। पश्चात्‌ विष्णु के आदेशानुसार देवताओं तथा दैत्यों ने लक्ष्मी को पुन: प्राप्त करने के लिए मंदराचल की मथानी तथा वासुकी की डोर बनाकर क्षीरसागर का मंथन किया। मंथन करते समय मंदराचल रसातल को जाने लगा तो विष्णु ने कच्छप के रूप में अपनी पीठ पर धारण किया और देवदानवों ने समुद्र से अमृत एवं लक्ष्मी सहित 14 रत्नों की प्राप्ति करके पूर्ववत्‌ वैभव संपादित किया। एकादशी का उपवास लोक में कच्छपावतार के बाद ही प्रचलित हुआ। कूर्मपुराण में विष्णु ने अपने कच्छपावतार में ऋषियों से जीवन के चार लक्ष्यों (धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष) की वर्णन किया था।



At the time of Samudr-Manthan (churning of the sea) by the gods and demons, in His eleventh incarnation as Kachhap (tortoise), God was the one to bear the Mandarachal mountain on His back.The Devas lost their strength and powers due to a curse by the sage Durvasa because Indra, the king of the Devas, had insulted the sage’s gift (a garland) by giving it to his elephant which trampled upon it. Thus, after losing their immortality and kingdom, they approached Lord Vishnu for help.Vishnu suggested that they needed to drink the nectar of immortality to regain their lost glory



।१६।। बारहवीं बार धन्वन्तरी के रूप में अमृत लेकर समुद्र से प्रकट हुए और तेहरवीं बार मोहिनी रूप धारण करके दैत्यों को मोहित करते हुए देवताओं को अमृत पिलाया

Also as Dhanvantari, He appeared with Amrit-Kalash (a jar of nectar) at the time of churning of the sea.When they began churning, the mount began sinking into the ocean. Taking the form of a turtle (Kurm), Vishnu bears the entire weight of the mountain and the churning continues and various objects are thrown out “Fourteen precious things” come out of the ocean, culminating with Dhanvantari, the physician of the gods, appearing with the nectar of immortality. The Asuras immediately rush and grab the nectar while quarreling among themselves.धन्वंतरी को पृथ्वी लोक में अवतरण समुद्र मंथन के समय हुआ था। शरद पूर्णिमा को चंद्रमा, कार्तिक द्वादशी को कामधेनु गाय, त्रयोदशी को धन्वंतरी, चतुर्दशी को काली माता और अमावस्या को भगवती लक्ष्मी जी का सागर से प्रादुर्भाव हुआ था। इसीलिये दीपावली के दो दिन पूर्व धनतेरस को भगवान धन्वंतरी का जन्म धनतेरस के रूप में मनाया जाता है। इसी दिन इन्होंने आयुर्वेद का भी प्रादुर्भाव किया था। इन्‍हें भगवान विष्णु का रूप कहते हैं जिनकी चार भुजायें हैं। उपर की दोंनों भुजाओं में शंख और चक्र धारण किये हुये हैं। जबकि दो अन्य भुजाओं मे से एक में औषध तथा दूसरे मे अमृत कलश लिये हुये हैं। इनका प्रिय धातु पीतल माना जाता है। इसीलिये धनतेरस को पीतल आदि के बर्तन खरीदने की परंपरा भी है।इन्‍हे आयुर्वेद की चिकित्सा करनें वाले वैद्य आरोग्य का देवता कहते हैं।

समुद्र मंथन के दौरान सबसे अंत में धन्वन्तरि अमृत कलश लेकर निकले। जैसे ही अमृत मिला अनुशासन भंग हुआ। देवताओं ने कहा हम ले लें, दैत्यों ने कहा हम ले लें। इसी खींचातानी में इंद्र का पुत्र जयंत अमृत कुंभ लेकर भाग गया। सारे दैत्य व देवता भी उसके पीछे भागे। असुरों व देवताओं में भयंकर मार-काट मच गई। इस दौरान अमृत कुंभ में से कुछ बूंदें पृथ्वी पर भी झलकीं। जिन चार स्थानों पर अमृत की बूंदे गिरी वहां प्रत्येक 12 वर्ष बाद कुंभ का मेला लगता है।




इधर देवता परेशान होकर भगवान विष्णु के पास गए। भगवान ने कहा-मैं कुछ करता हूं। तब भगवान ने मोहिनी अवतार लिया। देवता व असुर उसे ही देखने लगे। दैत्यों की वृत्ति स्त्रियों को देखकर बदल जाती है। सभी उसके पास आसपास घूमने लगे। भगवान ने मोहिनी रूप में उन सबको मोहित किया। मोहिनी ने देवता व असुर की बात सुनी और कहा कि यह अमृत कलश मुझे दे दीजिए तो मैं बारी-बारी से देवता व असुर को अमृत का पान करा दूंगी। दोनों मान गए। देवता एक तरफ तथा असुर दूसरी तरफ बैठ गए। स्त्री अपने मोह में, रूप में क्या नहीं करा सकती पुरूष से।

फिर मोहिनी रूप धरे भगवान विष्णु ने मधुर गान गाते हुए तथा नृत्य करते हुए देवता व असुरों को अमृत पान कराना प्रारंभ किया । वास्तविकता में मोहिनी अमृत पान तो सिर्फ देवताओं को ही करा रही थी जबकि असुर समझ रहे थे कि वे भी अमृत पी रहे हैं। एक राक्षस था राहू, उसको लगा कि कुछ गडग़ड़ चल रही है। वो मोहिनी की माया को समझ गया और चुपके से बैठ गया सूर्य और चंद्र के बीच में। देवताओं के साथ-साथ राहू ने भी अमृत पी लिया। और इस तरह राहू भी अमर हो गया।Mohini is the name of the only female Avatar of the god VishnuThe Amrit, or nectar of immortality, is produced by the churning of the Ocean of Milk. The Devas and the Asuras (demons) fight over its possession. The Asuras contrive to keep the Amrit for themselves, angering the Devas. Vishnu, wise to their plan, assumes the form of an "enchanting damsel". She uses her allure to trick the Asuras into giving her the Amrit, and then distributes it amongst the Devas. Rahu, an Asur, disguises himself as a god and tries to drink some Amrit himself. Surya (the sun-god) and Chandra (the moon-god) quickly inform Vishnu, and he uses the Sudarshana Chakr (the divine discus) to decapitate Rahu, leaving head immortal.ॐॐ




चतुर्दशं नारसिंहं बिभ्रद्दैत्येन्द्रमूर्जितम् ददार करजैरूरावेरकां कटकृद्यथा।।१७ ।।

चौदहवें अवतार में उन्होंने नरसिंह रूप धारण किया और अत्यंत बलवान दैत्य हिरन्यकश्यप की छाती अपने नखों से अनायास इस प्रकार फाड़ डाली, जैसे चटाई बनाने वाला सींक को फाड़ डालता है
.Narasinh or Nrusimh also spelt as Narsingh and Narsingh, whose name literally translates from Sanskrit as "Man-lion", is an avatar of Vishnu described in the Puranas, Upanishads and other ancient religious texts He is often visualized as half-man/half-lion, having a human-like torso and lower body, with a lion-like face and claws.This image is widely worshiped in deity form by a significant number of Vaishnava groups, particularly in Southern India. He is known primarily as the 'Great Protector' who specifically defends and protects his devotees in times of need.





 

ञ्चदशं वामनकं कृत्वागादध्वरं बलेः पदत्रयं याचमानः प्रत्यादित्सुस्त्रिपिष्टपम्।।१८।।

पंद्रहवीं बार वामन का रूप धारण करके भगवन दैत्यराज बलि के यज्ञ में गए । वे चाहते तो थे त्रिलोकी का राज्य पर मांगी उन्होंने केवल तीन पग भूमि Asked for land measuring just three steps from King Bali in His fifteenth incarnation as Vaman or a dwarf and having gifted him the royal seat of Sutal state became his gate-keeper.Vaaman was born to Aditi and KashyapThe legend of Bhagavat has it that the Vaaman avatar was taken by Vishnu to restore Indra's authority over the heavens, which was taken away by Mahabali, a benevolent Asura King. Bali was the grandson of Prahlad, the son of Hiranyakshipu. Vaaman, in the guise of a short Brahmin, carried a wooden umbrella and requested three steps of land for him to live in. Given a promise of three steps of land by King Mahabali against the warning given by his Guru Sukracharya, Vaaman, The Supreme God enlarged himself to such dimensions as to stride over the three worlds. He had grown so huge that he could step from heaven to earth, and earth to the lower worlds in two simple steps. King Mahabali unable to fulfill the promise of three paces of land to the Supreme God, offers his head for the third step. Thus Vaaman places his foot on King Mahabali's head and gives him immortality for his benevolence. Being worshipped however by Mahabali and his ancestor Prahláda, he conceded to them the sovereignty of netherworld.Vaaman taught King Mahabali that arrogance and pride should be abandoned if any advancement in life is to be made, and that wealth should never be taken for granted since it can so easily be taken away. Vaaman then took on the form of Mahavishnu and was pleased by King Mahabali's determination and ability to keep his promise, despite his spiritual master's curse and the prospect of losing all his wealth. Vishnu named the King Mahabali since he was a Mahatma (great soul). He allowed Mahabali to return to the spiritual sky to associate with Prahalad (the demoniac Hiranyakashipu's pious son) and other divine beings. Mahavishnu also declared that Mahabali would be able to rule the universe in the following yug (age). Mahabali was the grandson of Prahlad, being the son of Prahlad's son Virochan who was killed in a battle with the Devas.Mahabali is supposed to return every year to the land of his people, to ensure that they are prosperous.

 

हरि जिस पर कृपा करें, वही सबल है। उन्हीं की कृपा से देवताओं ने अमृत-पान किया। उन्हीं की कृपा से असुरों पर युद्ध में वे विजयी हुए। पराजित असुर मृत एवं आहतों को लेकर अस्ताचल चले गये। असुरेश बलि इन्द्र के वज्र से मृत हो चुके थे। आचार्य शुक्र ने अपनी संजीवनी विद्या से बलि तथा दूसरे असुरों को भी जीवित एवं स्वस्थ कर दिया। बलि ने आचार्य की कृपा से जीवन प्राप्त किया था। वे सच्चे हृदय से आचार्य की सेवा में लग गये। शुक्राचार्य प्रसन्न हुए। उन्होंने यज्ञ कराया। अग्नि से दिव्य रथ, अक्षय त्रोण, अभेद्य कवच प्रकट हुए। आसुरी सेना अमरावती पर चढ़ दौड़ी। इन्द्र ने देखते ही समझ लिया कि इस बार देवता इस सेना का सामना नहीं कर सकेंगे। बलि ब्रह्मतेज से पोषित थे। देवगुरु के आदेश से देवता स्वर्ग छोड़कर भाग गये। अमर-धाम असुर-राजधानी बना। शुक्राचार्य ने बलि का इन्द्रत्व स्थिर करने के लिये अश्वमेध यज्ञ कराना प्रारम्भ किया। सौ अश्वमेध करके बलि नियम सम्मत इन्द्र बन जायँगे। फिर उन्हें कौन हटा सकता है। 'स्वामी, मेरे पुत्र मारे-मारे फिरते हैं।' देवमाता अदिति अत्यन्त दुखी थीं। अपने पति महर्षि कश्यप से उन्होंने प्रार्थना की। महर्षि तो एक ही उपाय जानते हैं- भगवान की शरण, उन सर्वात्मा की आराधना। अदिति ने फाल्गुन के शुक्ल पक्ष में बारह दिन पयोव्रत करके भगवान की आराधना की। प्रभु प्रकट हुए। अदिति को वरदान मिला। उन्हीं के गर्भ से भगवान प्रकट हुए। शंख, चक्र, गदा, पद्मधारी चतुर्भुज पुरुष अदिति के गर्भ से जब प्रकट हुए, तत्काल वामन ब्रह्मचारी बन गये। महर्षि कश्यप ने ऋषियों के साथ उनका उपनयन संस्कार सम्पन्न किया। भगवान वामन पिता से आज्ञा लेकर बलि के यहाँ चले।

नर्मदा के उत्तर-तट पर असुरेन्द्र बलि अश्वमेध-यज्ञ में दीक्षित थे। यह उनका अन्तिम अश्वमेध था। छत्र, पलाश, दण्ड तथा कमण्डलु लिये, जटाधारी, अग्नि के समान तेजस्वी वामन ब्रह्मचारी वहाँ पधारे। बलि, शुक्राचार्य, ऋषिगण— सभी उस तेज से अभिभूत अपनी अग्नियों के साथ उठ खड़े हुए। बलि ने उनके चरण धोये, पूजन किया और प्रार्थना की कि जो भी इच्छा हो, वे माँग लें।

'मुझे अपने पैरों से तीन पद भूमि चाहिये!' बलि के कुल की शूरता, उदारता आदि की प्रशंसा करके वामन ने माँगा। बलि ने बहुत आग्रह किया कि और कुछ माँगा जाय; पर वामन ने जो माँगना था, वही माँगा था।

'ये साक्षात विष्णु हैं!' आचार्य शुक्र ने सावधान किया। समझाया कि इनके छल में आने से सर्वस्व चला जायगा।

'ये कोई हों, प्रह्लाद का पौत्र देने को कहकर अस्वीकार नहीं करेगा!' बलि स्थिर रहे। आचार्य ने ऐश्वर्य-नाश का शाप दे दिया। बलि ने भूमिदान का संकल्प किया और वामन विराट हो गये। एक पद में पृथ्वी, एक में स्वर्गादि लोक तथा शरीर से समस्त नभ व्याप्त कर लिया उन्होंने। उनका वाम पद ब्रह्मलोक से ऊपर तक गया। उसके अंगुष्ठ-नख से ब्रह्माण्ड का आवरण तनिक टूट गया। ब्रह्मद्रव वहाँ से ब्रह्माण्ड में प्रविष्ट हुआ। ब्रह्मा जी ने भगवान का चरण धोया और चरणोदक के साथ उस ब्रह्मद्रव को अपने कमण्डलु में ले लिया। वही ब्रह्मद्रव गंगा जी बना।

'तीसरा पद रखने को स्थान कहाँ है?' भगवान ने बलि को नरक का भय दिखाया। संकल्प करके दान न करने पर तो नरक होगा।

'इसे मेरे मस्तक पर रख ले!' बलि ने मस्तक झुकाया। प्रभु ने वहाँ चरण रखा। बलि गरुड़ द्वारा बाँध लिये गये।

'तुम अगले मन्वन्तर में इन्द्र बनोगे! तब तक सुतल में निवास करो। मैं नित्य तुम्हारे द्वार पर गदापाणि उपस्थित रहूँगा।' दयामय द्रवित हुए। प्रह्लाद के साथ बलि सब असुरों को लेकर स्वर्गाधिक ऐश्वर्यसम्पन्न सुतल लोक में पधारे। शुक्राचार्य ने भगवान के आदेश से यज्ञ पूरा किया।

महेन्द्र को स्वर्ग प्राप्त हुआ। ब्रह्मा जी ने भगवान वामन को 'उपेन्द्र' पद प्रदान किया। वे इन्द्र के रक्षक होकर अमरावती में अधिष्ठित हुए। बलि के द्वार पर गदापाणि द्वारपाल तो बन ही चुके थे ॐ ॐ


अवतारे षोडशमे पश्यन्ब्रह्मद्रुहो नृपान् त्रिःसप्तकृत्वः कुपितो निःक्षत्रामकरोन्महीम्।।१९।
सोलहवें परशुराम अवतार में जब उन्होंने देखा कि राजा लोग ब्राह्मणों के द्रोही हो गए हैं, तब क्रोधित होकर उन्होंने पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियों से शून्य कर दिया Annihilated from this earth the terrorizing and tyrant Kshatriyas for twenty one times in His sixteenth incarnation as Parashuram.Parashuram is the sixteenth avatar sixteenth out of 24 avtaars of Vishnu and belongs to the treta yug, and is the son of a Brahmin father Jamadagni and mother Renuka. He is considered one of the seven immortal (Chiranjeevi) human. He received an axe after undertaking a terrible penance to please Lord Shiv, from whom he learned the methods of warfare and other skills. Parashuram is said to be a Brahmakshatriya ("warrior Brahman"), the first warrior saint.Parashu means axe in Sanskrit, hence the name Parashuram literally means 'Ram with the axe'.Once, when Parashuram returned home, he found his mother crying hysterically. When asked why she was crying, she said his father had been killed mercilessly by Kartavirya Arjun. She beat her chest 21 times in sorrow and anguish at her husband's death. In a rage, Parashuram vowed to exterminate the world's Kshatriyas 21 times. He killed the entire clan of Kartavirya Arjun (or Sahasrarjuna) and then conquered the entire earth. He then conducted the Ashvamedh yagya, done only by sovereign kings, and gave the entire land he owned to the head-priest who performed at the yagya, viz. Kashyap.The Kalki Purana states Parashuram will be the martial guru of Sri Kalki, the final avatar of Lord Vishnu. It is he who instructs Kalki to perform a long penance to Shiva to receive celestial weaponry.भृगुश्रेष्ठ महर्षि जमदग्नि द्वारा संपन्न पुत्रेष्टि-यज्ञ से प्रसन्न देवराज इंद्र के वरदान स्वरूप पत्नी रेणुका के गर्भ से वैशाख शुक्ल तृतीया को विश्ववंद्य महाबाहु परशुरामजी का जन्म हुआ। वे भगवान विष्णु के आवेशावतार थे। पितामह भृगु द्वारा संपन्न नामकरण-संस्कार के अनन्तर राम, किंतु जमदग्निका पुत्र होने के कारण जामदग्न्य और शिवजी द्वारा प्रदत्त परशु धारण किए रहने के कारण परशुराम कहलाए। वे शस्त्रविद्या के महान गुरु थे। उन्होंने भीष्म, द्रोण व कर्ण को शस्त्रविद्या प्रदान की थी। कथानक है कि हैहय वंशाधिपति का‌र्त्तवीर्यअर्जुन (सहस्त्रार्जुन) ने घोर तप द्वारा भगवान दत्तात्रेय को प्रसन्न कर एक सहस्त्र भुजाएं तथा युद्ध में किसी से परास्त न होने का वर पाया था। संयोगवश वन में आखेट करते वह जमदग्निमुनि के आश्रम जा पहुंचा और देवराज इंद्र द्वारा उन्हें प्रदत्त कपिला कामधेनु की सहायता से हुए समस्त सैन्यदल के अद्भुत आतिथ्य सत्कार पर लोभवश जमदग्नि की अवज्ञा करते हुए कामधेनु को बलपूर्वक छीनकर ले गया।कुपित परशुरामजी ने फरसे के प्रहार से उसकी समस्त भुजाएं काट डालीं व सिर को धड से पृथक कर दिया। तब सहस्त्रार्जुन के दस हजार पुत्रों ने प्रतिशोधवश परशुराम की अनुपस्थिति में ध्यानस्थ जमदग्निका वध कर डाला। रेणुका पति की चिताग्नि में प्रविष्ट हो सती हो गई। क्षुब्ध परशुरामजी ने प्रतिशोधवश महिष्मती नगरी पर अधिकार कर लिया, इसके बाद उन्होंने इस पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियों से रहित कर दिया फिर अंत में उन्होंने अश्वमेघ महायज्ञ कर सप्तद्वीपयुक्त पृथ्वी महर्षि कश्यप को दान कर दी और इंद्र के समक्ष शस्त्र त्यागकर सागर द्वारा उच्छिष्ट भूभाग महेंद्र पर आश्रम बनाकर रहने लगे।ॐ ॐ


।।२०।। इसके बाद सत्रहवें अवतार में सत्यवती के गर्भ से पाराशर जी के द्वारा वे व्यास के रूप में अवतीर्ण हुए, उस समय लोगों की समझ और धार्नाशक्ति कम देख कर आपने वेद रूप वृक्ष की कई शाखाएं बना दी As the son of the great seer Parashar appeared from the womb of Satyavati as Vyasa in His seventeenth incarnation and organised the Vedas. As the son of the great seer Parashar appeared from the womb of Satyavati as Vyasa in His seventeenth incarnation.Vyaas is also sometimes called Ved Vyaas or Krishn Dvaipaayan (referring to his complexion and .birthplace as Krishna (black), and also the name Dwaipayan, meaning 'island-born'.). He is the author as well as a character in the Mahabh arat'. Vyaas is also considered to be one of the seven Chiranjivins (long lived, or immortals), who are still in existence according to general Sanatan Dharmic belief.The festival of Guru Purnima, is dedicated to him, and also known as Vyaas Purnima as it is the day, which is believed to be his birthday. Vyaas was grandfather to the Kauravas and Pandavas.Vyaas is also credited with the writing of the eighteen major, if not all, Purāṇas. His son Shuk is the narrator of the major Purāṇ Shrimad Bhagavat-MahaPurāṇ. वेदव्यास भगवान नारायण के ही कलावतार थे।
व्यास जी के पिता का नाम पराशर ऋषि तथा माता का नाम सत्यवती था। जन्म लेते ही इन्होंने अपने पिता-माता से जंगल में जाकर तपस्या करने की इच्छा प्रकट की।
प्रारम्भ में इनकी माता सत्यवती ने इन्हें रोकने का प्रयास किया, किन्तु अन्त में इनके माता के स्मरण करते ही लौट आने का वचन देने पर उन्होंने इनको वन जाने की आज्ञा दे दी।
व्यास का अर्थ है 'संपादक'। यह उपाधि अनेक पुराने ग्रन्थकारों को प्रदान की गयी है, किन्तु विशेषकर वेदव्यास उपाधि वेदों को व्यवस्थित रूप प्रदान करने वाले उन महर्षि को दी गयी है जो चिरंजीव होने के कारण 'आश्वत' कहलाते हैं। यही नाम महाभारत के संकलनकर्ता, वेदान्तदर्शन के स्थापनकर्ता तथा पुराणों के व्यवस्थापक को भी दिया गया है। ये सभी व्यक्ति वेदव्यास कहे गये है। महाभारतकार व्यास ऋषि पराशर एवं सत्यवती के पुत्र थे, ये साँवले रंग के थे तथा यमुना के बीच स्थित एक द्वीप में उत्पन्न हुए थे। अतएव ये साँवले रंग के कारण 'कृष्ण' तथा जन्मस्थान के कारण 'द्वैपायन' कहलाये। इनकी माता ने बाद में शान्तनु से विवाह किया, जिनसे उनके दो पुत्र हुए, जिनमें बड़ा चित्रांगद युद्ध में मारा गया और छोटा विचित्रवीर्य संतानहीन मर गया। कृष्ण द्वैपायन ने धार्मिक तथा वैराग्य का जीवन पसंद किया, किन्तु माता के आग्रह पर इन्होंने विचित्रवीर्य की दोनों सन्तानहीन रानियों द्वारा नियोग के नियम से दो पुत्र उत्पन्न किये जो धृतराष्ट्र तथा पाण्डु कहलाये, इनमें तीसरे विदुर भी थे। । भगवान् वेदव्यास एक अलौकिक शक्तिसम्पन्न महापुरुष थे। बदरीवन में निवास करने कारण बादरायण भी कहे जाते हैं। इन्होंने महाभारत, अठारह महापुराणों तथा ब्रह्मसूत्रका भी प्रणयन किया। अत: व्यासजी की गणना भगवान् के चौबीस अवतारों में की जाती है। व्यासस्मृति के नाम से इनके द्वारा प्रणीत एक स्मृतिग्रन्थ भी है। भारतीय वांड्मय एवं सनातन -संस्कृति व्यासजी की ऋणी है। संसार में जब तक सनातन धर्म एवं भारतीय संस्कृति जीवित है, तब तक व्यासजी का नाम अमर रहेगा। महर्षि व्यास त्रिकालदर्शी थे। वेदान्त-दर्शन की शक्ति के साथ अनादि पुराण को लुप्त होते देखकर भगवान कृष्णद्वैपायन ने अठारह पुराणों का प्रणयन किया। इनके द्वारा प्रणीत महाभारत को पंचम वेद कहा जाता है। श्रीमद्भागवत के रूप में भक्ति का सार-सर्वस्व इन्होंने मानव मात्र को सुलभ कराया और ब्रह्मसूत्र के रूप में तत्त्वज्ञान का अनुपम ग्रन्थ-रत्न प्रदान किया।
भगवान व्यास जी ने संजय को दिव्य दृष्टि प्रदान की, जिससे युद्ध-दर्शन के साथ उनमें भगवान् के विश्वरूप एवं दिव्य चतुर्भुजरूप के दर्शन की भी योग्यता आ गयी। उन्होंने कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में भगवान् श्रीकृष्ण के मुखारविन्दसे नि:सृत श्रीमद्भगवद्गीता का श्रवण किया, जिसे अर्जुन के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं सुन पाया।ॐ ॐ


।।२१।। अठारहवीं बार देवताओं का कार्य संपन्न करने की इच्छा से उन्होंने राजा के रूप में राम अवतार ग्रहण किया और सेतु बंधन, रावण वध, आदि वीरतापूर्ण बहुत सी लीलाएं की Killed Ravana besides various heroic acts in His eighteenth incarnation as King Rama. Shri Raam was born in Suryavansh (Ikshvaku Vansh) also known as Raghuvnsha after king Raghu.




।।२२।। उन्नीस्वें और बीसवें अवतारों में उन्होंने यदुवंश में बलराम और श्रीकृष्ण के नाम से प्रकट होकर पृथ्वी का भार उतारा In nineteenth and twentieth incarnation as Balarama and Krishna killed various wickeds to relieve the earth.The Sanskrit word kṛṣṇa is primarily an adjective meaning "black", "dark" or "dark-blue"., sometimes it is also translated as "all attractive"




।।२३।। उसके बाद कलयुग आ जाने पर मगध देश में देवताओं के द्वेषी दैत्यों को मोहित करने के लिए बुद्धावतार आपका होगा The twenty first incarnation would be that of Buddha during the Kaliyug (kali-age) to delude the demons, who are hostile to gods.The twenty second incarnation would be Kalki in the form of son of Vishnuyasha at the end of Kaliyug.ॐ


।।२४।। इसके भी बहुत पीछे जब कलयुग का अंत समीप होगा और राजा लोग प्राय : लुटेरे हो जायेंगे ,तब जगत के रक्षक भगवान् विष्णुयश नामक ब्राह्मन के घर कल्किरूप में अवतीर्ण होंगे The twenty second incarnation would be Kalki in the form of son of Vishnuyasha at the end of Kaliyug.

ॐ ॐ






बारह ज्योतिर्लिंग ll Twelve Jyotirlingams





सोमनाथ मंदिर गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र के वेरावल बंदरगाह में स्थित इस मंदिर के बारे में कहा जाता है कि इसका निर्माण स्वयं चन्द्रदेव ने किया था । सोमनाथ का बारह ज्योतिर्लिगों में सबसे प्रमुख स्थान है। सोमनाथ मंदिर विश्व प्रसिद्ध धार्मिक व पर्यटन स्थल है। मंदिर प्रांगण में रात साढे सात से साढे आठ बजे तक एक घंटे का साउंड एंड लाइट शो चलता है, जिसमें सोमनाथ मंदिर के इतिहास का बडा ही सुंदर सचित्र वर्णन किया जाता है। लोककथाओं के अनुसार यहीं श्रीकृष्ण ने देहत्याग किया था। समुद्र तट पर होने के कारण ग्रीष्म ऋतु में यहां शीतलता रहती है। सोमनाथ का प्रथम मंदिर सोम ने बनवाया था। दूसरे युग में लंकापति रावण ने उसे रजत चांदी में बनवाया; श्रीकृष्ण ने उसे काष्ट का बनवाया; पुराणों में बताए कथानक के अनुसार सोम यानी चन्द्र ने, दक्ष प्रजापति राजा की सत्तईस कन्याओं से विवाह किया था। इन सत्तईस कन्यों को अपनी पत्नी बनाई थी। लेकिन उनमें से रोहिणी नामक अपनी पत्नी पर प्यार अधिक था। उसे वह ज्यादा सम्मान दिया करता था। शेश कन्याओं ने इसकी शिकायत अपने राजा पिता दक्षप्रजापति से बड़े विरोध के साथ कर दिया। अपनी अन्य कन्याओं पर होता हुआ अन्याय पिता दक्ष के लिए सहन करना मुश्किल हो गया। अत: गुस्से में आकर दक्ष राजा ने चन्द्र यानी सोम को श्राप दे दिया कि अब से हर दिन तुम्हारा तेज (क्रांति) क्षीण होता रहेगा। फलस्वरुप हर दूसरे दिन चंद्र का तेज घटने लगा। शाप से विचलित और दु:खी सोम ने भगवान शिव की घोर आराधना शुरु कर दी। क्योंकि चंद्र की क्षिणता से पृथ्वी पर भी उसका विघातक प्रभाव पड़ रहा था। लोग भी त्रस्त हो रहे थे। सोम-चंद्र की कड़ी आराधना से प्रभु भोलेनाथ प्रसन्न हुए और चंद्र के श्राप का निवारण किया। सोम के कष्ट को दूर करने वाले प्रभु शिव की स्थापन यहॉ करवा कर उनका नामकरण हुआ सोमनाथ।


 It is located at Prabhas Patan (Somnath - Veraval) in Saurashtra in Gujarat.Somnath means "The Protector of (the) Moon God". Most recently it was rebuilt in November 1947, when Sardar Vallabhbhai Patel visited the area for the integration of Junagadh and mooted a plan for restoration. After Patel's death, the rebuilding continued under K. M. Munshi, another minister of the Government of India.the primary image is lingam representing the beginningless and endless Stambha pillar, symbolizing the infinite nature of ShivAccording to the legend, Som or the Moon God built the temple in gold, Ravana in silver, and Shri Krishn in wood. Soma was cursed by his father-in-law Daksh to wane because Som loved only one of his wives, all of whom happened to be Daksh's daughters. His other wives complained about this negligent behavior of Som to their father Daksh, and thus the curse. He then built a Shivling at the Prabhas tirth (a Hindu pilgrimage) and prayed to Lord Shiv who removed the curse partially because asked upon by Som's one wife (the one that he loved more than others). Thus, causing the periodic waning of moon.Pleased by the prayers Som (Moon god), Lord Shiv decided to rest in that Lingam till eternity, and thus the Jyotirlingam.





श्रीशैलम (श्री सैलम नाम से भी जाना जाता है) नामक ज्योतिर्लिंग आंध्र प्रदेश के पश्चिमी भाग में कुर्नूल जिले के नल्लामल्ला जंगलों के मध्य श्री सैलम पहाडी पर स्थित है। यहाँ शिव की आराधना मल्लिकार्जुन नाम से की जाती है। मंदिर का गर्भगृह बहुत छोटा है और एक समय में अधिक लोग नही जा सकते। इस कारण यहाँ दर्शन के लिए लंबी प्रतीक्षा करनी होती है। स्कंद पुराण में श्री शैल काण्ड नाम का अध्याय है। इसमें उपरोक्त मंदिर का वर्णन है। इससे इस मंदिर की प्राचीनता का पता चलता है। तमिल संतों ने भी प्राचीन काल से ही इसकी स्तुति गायी है। कहा जाता है कि आदि शंकराचार्य ने जब इस मंदिर की यात्रा की, तब उन्होंने शिवनंद लहरी की रचना की थी। श्री शैलम का सन्दर्भ प्राचीन पुराणों और ग्रंथ महाभारत में भी आता है।

  The second jyotirlingam is Mallikārjun, also called Śrīśaila, is located on a mountain on the river Krishna. Srisailam, in Kurnool District in Andhra Pradesh enshrines Mallikarjun in an ancient temple that is architecturally and sculpturally rich.It is one place where Shakti peeta and Jyotirlingam are together. Adi Shankara composed his Sivanand Lahiri hereWhen Shiva and Parvathi decided to find suitable brides for their sons, Ganesha and kaarthikeya argued as to who is to get wedded first. Lord Shiva bade that the one who goes round the world in Pradakshinam could get married first. By the time Lord Muruga could go round the world on his vahana, Lord Ganesha went round his parents 7 times (for according to Sastras, going in pradakshinam round one's parents is equivalent to going once round the world (Boopradakshinam). Lord Siva got Siddhi & Buddhi, the daughtersof Viswaroopan married to Lord Ganesha. Muruga on his return was enraged and went away to stay alone on Mount Kravunja in the name of Kumarabrahmachari. On seeing his father coming over to pacify him, he tried to move to another place, but on the request of the Devas, stayed close by. The place where Lord Siva and Parvathi stayed came to be known as Sri Sailam. Lord Siva visits Lord Muruga on Amavasai day & Parvathi Devi on Pournami. The temple is situated facing East. The centre mandapam has several pillars, with a huge idol of Nadikeswarar.
Mahashivratri is the main festival celebrated at Srisailam Mallikarjuna Swamy temple.




महाकालेश्वर मंदिर भारत के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। यह मध्यप्रदेश राज्य के उज्जैन नगर में स्थित, महाकालेश्वर भगवान का प्रमुख मंदिर है। पुराणों, महाभारत और कालिदास जैसे महाकवियों की रचनाओं में इस मंदिर का मनोहर वर्णन मिलता है। स्वयंभू, भव्य और दक्षिणमुखी होने के कारण महाकालेश्वर महादेव की अत्यन्त पुण्यदायी महत्ता है।मंदिर एक परकोटे के भीतर स्थित है। गर्भगृह तक पहुँचने के लिए एक सीढ़ीदार रास्ता है। इसके ठीक उपर एक दूसरा कक्ष है जिसमें ओंकारेश्वर शिवलिंग स्थापित है। मंदिर का क्षेत्रफल १०.७७ x १०.७७ वर्गमीटर और ऊंचाई २८.७१ मीटर है। महाशिवरात्रि एवं श्रावण मास में हर सोमवार को इस मंदिर में अपार भीड़ होती है। मंदिर से लगा एक छोटा-सा जलस्रोत है जिसे कोटितीर्थ कहा जाता है। श्री महाकालेश्वर (मध्यप्रदेश) के मालवा क्षेत्र में क्षिप्रा नदी के तटपर पवित्र उज्जैन नगर में विराजमान है। उज्जैन को प्राचीनकाल में अवंतिकापुरी कहते थे।


The third jyotirling is Mahakal, Ujjain (or Avanti) in Madhya Pradesh is home to the Mahakaleshwar Jyotirlinga temple. The Lingam at Mahakal is believed to be Swayambhu, the only one of the 12 Jyotirlingams to be so. It is also the only one facing south and also the temple to have a Shree Yantra perched upside down at the ceiling of the Garbhagrih (where the Shiv Lingam sits).It is located in the ancient city of Ujjain in the state of Madhya Pradesh, India. The temple is situated on the side of the Rudra Sagar lake. The presiding deity, Shiva in the lingam form is believed to be Swayambhu, deriving currents of power (Shakti) from within itself as against the other images and lingams that are ritually established and invested with mantra-shakti.The idol of Mahakaleshwar is known to be dakshinamurti, which means that it is facing the south. This is a unique feature, upheld by the tantric shivnetra tradition to be found only in Mahakaleshwar among the 12 Jyotirlingas. The idol of Omkareshwar Mahadev is consecrated in the sanctum above the Mahakal shrine. The images of Ganesh, Parvati and Karttikeya are installed in the west, north and east of the sanctum sanctorum. To the south is the image of Nandi, the vehicle of Lord Shiva. The idol of Nagchandreshwar on the third storey is open for darshan only on the day of Nag Panchami. The temple has five levels, one of which is underground. The temple itself is located in a spacious courtyard surrounded by massive walls near a lake. The shikhar or the spire is adorned with sculptural finery. Brass lamps light the way to the underground sanctum. It is believed that prasada (holy offering) offered here to the deity can be re-offered unlike all other shrinesAccording to the Puranas, the city of Ujjain was called Avantika and was famous for its beauty and its devotional epicenter. It was also one of the primary cities where students went to study holy scriptures. According to legend, there was a ruler of Ujjain called Chandrasen, who was a pious devotee of Lord Shiva and worshipped him all the time. One day, a farmer's boy named Shrikhar was walking on the grounds of the palace and heard the King chant the Lord's name and rushed to the temple to start praying with him. However, the guards removed him by force and sent him to the outskirts of the city near the river Kshipra. Rivals of Ujjain, primarily King Ripudaman and Kind Singhaditya of the neighboring kingdoms decided to attack the Kingdom and take over its treasures around this time. Hearing this, Shrikhar started to pray and the news spread to a priest named Vridhi. He was shocked to hear this and upon the urgent pleas of his sons, he started to pray to Lord Shiva inside the river Kshipra. The Kings chose to attack and were successful; with the help of the powerful demon Dushan, who was blessed by Lord Brahma to be invisible, they plundered the city and attacked all the devotees of Lord Shiva.
Upon hearing the pleas of His helpless devotees, Lord Shiva appeared in his Mahakal form and destroyed the enemies of King Chandrasen. Upon the request of his devotees Shrikhar and Vridhi, Lord Shiva agreed to reside in the city and become the chief deity of the Kingdom and take care of it against its enemies and to protect all His devotees. From that day on, Lord Shiva resided in His light form as Mahakal in a Lingam that was formed on its own from the powers of the Lord and His consort, Parvati. The Lord also blessed his devotees and declared that people who worshipped Him in this form would be free from the fear of death and diseases. Also, they would be granted worldly treasures and be under the protection of the Lord himself









मालवा क्षेत्र में श्रीॐकारेश्वर स्थान नर्मदा नदी के बीच स्थित द्वीप पर है। उज्जैन से खण्डवा जाने वाली रेलवे लाइन पर मोरटक्का नामक स्टेशन है, वहां से यह स्थान 10 मील दूर है। यहां ॐकारेश्वर और मामलेश्वर दो पृथक-पृथक लिङ्ग हैं, परन्तु ये एक ही लिङ्ग के दो स्वरूप हैं। श्रीॐकारेश्वर लिंग को स्वयंभू समझा जाता है।
यह मध्य प्रदेश के खंडवा जिले में स्थित है। यह नर्मदा नदी के बीच मन्धाता या शिवपुरी नामक द्वीप पर स्थित है। यह भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगओं में से एक है। यह यहां के मोरटक्का गांव से लगभग 12 मील (20 कि.मी.) दूर बसा है। यह द्वीप हिन्दू पवित्र चिन्ह ॐ के आकार में बना है। का निर्माण नर्मदा नदी से स्वतः ही हुआ है। यह नदी भारत की पवित्रतम नदियों में से एक है, और अब इस पर विश्व का सर्वाधिक बड़ा बांध परियोजना का निर्माण हो रहा है।
जिस ओंकार शब्द का उच्चारण सर्वप्रथम सृष्टिकर्ता विधाता के मुख से हुआ, वेद का पाठ इसके उच्चारण किए बिना नहीं होता है।
इस ओंकार का भौतिक विग्रह ओंकार क्षेत्र है। इसमें 68 तीर्थ हैं। यहाँ 33 करोड़ देवता परिवार सहित निवास करते हैं तथा 2 ज्योतिस्वरूप लिंगों सहित 108 प्रभावशाली शिवलिंग हैं। मध्यप्रदेश में देश के प्रसिद्ध 12 ज्योतिर्लिंगों में से 2 ज्योतिर्लिंग विराजमान हैं। एक उज्जैन में महाकाल के रूप में और दूसरा ओंकारेश्वर में ममलेश्वर (अमलेश्वर) के रूप में विराजमान हैं।
कथा
राजा मान्धाता ने यहाँ नर्मदा किनारे इस पर्वत पर घोर तपस्या कर भगवान शिव को प्रसन्न किया और शिवजी के प्रकट होने पर उनसे यहीं निवास करने का वरदान माँग लिया। तभी से उक्त प्रसिद्ध तीर्थ नगरी ओंकार-मान्धाता के रूप में पुकारी जाने लगी। जिस ओंकार शब्द का उच्चारण सर्वप्रथम सृष्टिकर्ता विधाता के मुख से हुआ, वेद का पाठ इसके उच्चारण किए बिना नहीं होता है। इस ओंकार का भौतिक विग्रह ओंकार क्षेत्र है। इसमें 68 तीर्थ हैं। यहाँ 33 करोड़ देवता परिवार सहित निवास करते हैं।
नर्मदा क्षेत्र में ओंकारेश्वर सर्वश्रेष्ठ तीर्थ है। शास्त्र मान्यता है कि कोई भी तीर्थयात्री देश के भले ही सारे तीर्थ कर ले किन्तु जब तक वह ओंकारेश्वर आकर किए गए तीर्थों का जल लाकर यहाँ नहीं चढ़ाता उसके सारे तीर्थ अधूरे माने जाते हैं। ओंकारेश्वर तीर्थ के साथ नर्मदाजी का भी विशेष महत्व है। शास्त्र मान्यता के अनुसार जमुनाजी में 15 दिन का स्नान तथा गंगाजी में 7 दिन का स्नान जो फल प्रदान करता है, उतना पुण्यफल नर्मदाजी के दर्शन मात्र से प्राप्त हो जाता है।
ओंकारेश्वर तीर्थ क्षेत्र में चौबीस अवतार, माता घाट (सेलानी), सीता वाटिका, धावड़ी कुंड, मार्कण्डेय शिला, मार्कण्डेय संन्यास आश्रम, अन्नपूर्णाश्रम, विज्ञान शाला, बड़े हनुमान, खेड़ापति हनुमान, ओंकार मठ, माता आनंदमयी आश्रम, ऋणमुक्तेश्वर महादेव, गायत्री माता मंदिर, सिद्धनाथ गौरी सोमनाथ, आड़े हनुमान, माता वैष्णोदेवी मंदिर, चाँद-सूरज दरवाजे, वीरखला, विष्णु मंदिर, ब्रह्मेश्वर मंदिर, सेगाँव के गजानन महाराज का मंदिर, काशी विश्वनाथ, नरसिंह टेकरी, कुबेरेश्वर महादेव, चन्द्रमोलेश्वर महादेव के मंदिर भी दर्शनीय हैं।
नर्मदा ही एक ऐसी नदी है जिसकी लाखों भक्तों द्वारा 1 हजार 780 मील की लंबी परिक्रमा की जाती है। नियम से उक्त परिक्रमा 108 दिनों में संपन्न की जाती है।
ॐ ॐ








4. The fourth jyotirlingam is Omkareshwar in Madhya Pradesh on an island in the Narmada River is home to a Jyotirlinga shrine and the Mamaleshwar temple.It is on an island called Mandhata or Shivapuri in the Narmada river; the shape of the island is said to be like the Hindu ॐ symbol. There are two temples here, one to Omkareshwar (whose name means "Lord of Omkaara or the Lord of the Om Sound") and one to Amareshwar (whose name means "Immortal lord" or "lord of the Immortals or Devas"). But as per the sloka on dwadash jyotirligam, Mamleshwar is the jyotirling, which is on other side of Narmada river.Omkareshwar Jyotirlinga also has its own history and stories.Three are them are prominent.




 केदारनाथ हिमालय के केदार नामक श्रृङ्गपर स्थित हैं। शिखर के पूर्व की ओर अलकनन्दा के तट पर श्री बदरीनाथ अवस्थित हैं और पश्चिम में मन्दाकिनी के किनारे श्री केदारनाथ हैं। यह स्थान हरिद्वार से 150 मील और ऋषिकेश से 132 मील दूर उत्तरांचल राज्य में है।कस्बा है। यह रुद्रप्रयाग की एक नगर पंचायत है। यह हिन्दू धर्म के अनुयाइयों के लिए पवित्र स्थान है। यहाँ स्थित केदारनाथ मंदिर का शिव लिंग १२ ज्योतिर्लिंगों में से एक है और हिन्दू धर्म के उत्तरांचल के चार धाम और पंच केदार में गिना जाता है। श्रीकेदारनाथ का मंदिर ३,५९३ फीट की ऊंचाई पर बना हुआ एक भव्य एवं विशाल मंदिर है। इतनी ऊंचाई पर इस मंदिर को कैसे बनाया गया, इस बारे में आज भी पूर्ण सत्य ज्ञात नहीं हैं। सतयुग में शासन करने वाले राजा केदार के नाम पर इस स्थान का नाम केदार पड़ा। राजा केदार ने सात महाद्वीपों पर शासन और वे एक बहुत पुण्यात्मा राजा थे। यहां स्थापित प्रसिद्ध हिन्दू तीर्थ केदारनाथ मंदिर अति प्राचीन है। कहते हैं कि भारत की चार दिशाओं में चार धाम स्थापित करने के बाद जगद्गुरू शंकराचार्य ने ३२ वर्ष की आयु में यहीं श्री केदारनाथ धाम में समाधि ली थी। उन्हीं ने वर्तमान मंदिर बनवाया था। यहां एक झील है जिसमें बर्फ तैरती रहती है इस झील के बारे में प्रचलित है इसी झील से युधिष्ठिर स्वर्ग गये थे। श्री केदारनाथ धाम से छह किलोमीटर की दूरी चौखम्बा पर्वत पर वासुकी ताल है यहां ब्रह्म कमल काफी होते हैं तथा इस ताल का पानी काफी ठंडा होता है। यहां गौरी कुण्ड, सोन प्रयाग, त्रिजुगीनारायण, गुप्तकाशी, उखीमठ, अगस्तयमुनि, पंच केदार आदि दर्शनीय स्थल हैं।
केदारनाथ आने के लिए कोटद्वार जो कि केदारनाथ से २६० किलोमीटर तथा ऋर्षिकेश जो कि केदारनाथ से २२९ किलोमीटर दूर है तक रेल द्वारा आया जा सकता है। सड़क मार्ग द्वारा गौरीकुण्ड तक जाया जा सकता है जो कि केदारनाथ मंदिर से १४ किलोमीटर पहले है। यहां से पैदल मार्ग या खच्चर तथा पालकी से भी केदारनाथ जाया जा सकता है।
ॐ ॐ



  The fifth jyotirlingam is Kedarnath in Uttarakhand is the northernmost of the Jyotirlingas. Kedarnath, nestled in the snow-clad Himalayas, is an ancient shrine, rich in legend and tradition. It is accessible only by foot, and only for six months a year.Due to extreme weather conditions, the temple is open only between the end of April to Kartik Purnima (the autumn full moon). During the winters, the murtis (idols) from Kedarnath temple are brought to Ukhimath and worshipped there for six months. In this region Lord Shiva is worshipped as Kedarnath, the 'Lord of Kedar Khand', the historical name of the region. This The head priest (Rawal) of the Kedarnath temple belongs to the Lingayath community of South India. However, unlike in Badrinath temple, the Rawal of Kedarnath temple does not perform the pujas. The pujas are carried out by Rawal's assistants on his instructions. The Rawal moves along with the deity to Ukhimath during the winter season. The present Rawal of Kedarnath temple is Shri Bhima Shankar






भीमाशंकर मंदिर भोरगिरि गांव खेड़ से 50 कि.मि. उत्तर-पश्चिम पुणे से 110 कि.मि में स्थित है। यह पश्चिमी घाट के सह्याद्रि पर्वत में स्थित है। यहीं से भीमा नदी भी निकलती है। यह दक्षिण पश्चिम दिशा में बहती हुई रायचूर जिले में कृष्णा नदी]] से जा मिलती है। यहां भगवान शिव का प्रसिद्ध ज्योतिर्लिंग है।कथा
भीमशंकर महादेव काशीपुर में भगवान शिव का प्रसिद्ध मंदिर और तीर्थ स्थान है। यहां का शिवलिंग काफी मोटा है जिसके कारण इन्हे मोटेश्वर महादेव भी कहा जाता है। पुराणो में भी इसका वर्णन मिलता है। आसाम में शिव के द्वाद्श ज्योर्तिलिगों में एक भीमशंकर महादेव का मंदिर है। काशीपुर के मंदिर का उन्हीं का रुप बताया जाता है।

  The sixth jyotirlingam is There is a Bhimashankar temple near Pune in Maharastra, which was referred to as Daakini country, but Kashipur in Uttarakhand was also referred to as Daakini country in ancient days and a Bhimashkar Temple known as Shree Moteshwar Mahadev is present there.Bhimashankar is the source of the Bhima River, which flows southeast and merges with the Krishna River. With endless stretches of virgin forests, lofty peaks that seem to reach out to the heavens, and the whispering waters of the Bhima River, Bhimashankar is definitely one of God's choicest creations.




प्रलयकाल में भी इसका लोप नहीं होता। उस समय भगवान शंकर इसे अपने त्रिशूल पर धारण कर लेते हैं और सृष्टि काल आने पर इसे नीचे उतार देते हैं। यही नहीं, आदि सृष्टि स्थली भी यहीं भूमि बतलायी जाती है। इसी स्थान पर भगवान विष्णु ने सृष्टि उत्पन्न करने का कामना से तपस्या करके आशुतोष को प्रसन्न किया था और फिर उनके शयन करने पर उनके नाभि-कमल से ब्रह्मा उत्पन्न हुए, जिन्होने सारे की रचना की। अगस्त्य मुनि ने भी विश्वेश्वर की बड़ी आराधना की थी और इन्हीं की अर्चना से श्रीवशिष्ठजी तीनों लोकों में पुजित हुए तथा राजर्षि विश्वामित्र ब्रह्मर्षि कहलाये।
सर्वतीर्थमयी एवं सर्वसंतापहारिणी मोक्षदायिनी काशी की महिमा ऐसी है कि यहां प्राणत्याग करने से ही मुक्ति मिल जाती है। भगवान भोलानाथ मरते हुए प्राणी के कान में तारक-मंत्र का उपदेश करते हैं, जिससे वह आवगमन से छुट जाता है, चाहे मृत-प्राण्ाी कोई भी क्यों न हो। मतस्यपुराण का मत है कि जप, ध्यान और ज्ञान से रहित एवंम दुखों परिपीड़ित जनों के लिये काशीपुरी ही एकमात्र गति है। विश्वेश्वर के आनंद-कानन में पांच मुख्य तीर्थ हैं:-
दशाश्वेमघ,
लोलार्ककुण्ड,
बिन्दुमाधव,
केशव और
मणिकर्णिका
और इनहीं से युक्त यह अविमुक्त क्षेत्र कहा जाता है

The seventh jyotirlingam is Kashi Vishwanath Temple in Varanasi, Uttar Pradesh is home to the Vishwanath Jyotirling shrineIt is in the state of Uttar Pradesh, India. The temple stands on the western bank of the holy river Ganges, and is one of the twelve Jyotirlingas, the holiest of Shiva temples. The main deity is known by the name Vishwanatha or Vishweshwara meaning the Ruler of the universe. The temple complex consists of a series of smaller shrines, located in a small lane called the Vishwanatha Galli, near the river



र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग मन्दिर महाराष्ट्र-प्रांत के नासिक जिले में हैं यहां के निकटवर्ती ब्रह्म गिरि नामक पर्वत से गोदावरी नदी का उद्गम है। इन्हीं पुण्यतोया गोदावरी के उद्गम-स्थान के समीप असस्थित त्रयम्बकेश्वर-भगवान की भी बड़ी महिमा हैं गौतम ऋषि तथा गोदावरी के प्रार्थनानुसार भगवान शिव इस स्थान में वास करने की कृपा की और त्र्यम्बकेश्वर नाम से विख्यात हुए। मंदिर के अंदर एक छोटे से गङ्ढे में तीन छोटे-छोटे लिंग है, ब्रह्मा, विष्णु और शिव- इन तीनों देवों के प्रतिक माने जाते हैं। शिवपुराण के ब्रह्मगिरि पर्वत के ऊपर जाने के लिये चौडी-चौड़ी सात सौ सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। इन सीढ़ियों पर चढ़ने के बाद 'रामकुण्ड' और 'लष्मणकुण्ड' मिलते हैं और शिखर के ऊपर पहुँचने पर गोमुख से निकलती हुई भगवती गोदावरी के दर्शन होते हैं।त्र्यंबकेश्‍वर ज्‍योतिर्लिंग में ब्रह्मा, विष्‍णु और महेश तीनों ही विराजित हैं यही इस ज्‍योतिर्लिंग की सबसे बड़ी विशेषता है। अन्‍य सभी ज्‍योतिर्लिंगों में केवल भगवान शिव ही विराजित हैं।गोदावरी नदी के किनारे स्थित त्र्यंबकेश्‍वर मंदिर काले पत्‍थरों से बना है। मंदिर का स्‍थापत्‍य अद्भुत है। इस मंदिर में कालसर्प शांति, त्रिपिंडी विधि और नारायण नागबलि की पूजा संपन्‍न होती है। जिन्‍हें भक्‍तजन अलग-अलग मुराद पूरी होने के लिए करवाते हैं।‘प्राचीनकाल में त्र्यंबक गौतम ऋषि‍ की तपोभूमि थी। अपने ऊपर लगे गोहत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए गौतम ऋषि ने कठोर तप कर शिव से गंगा को यहाँ अवतरित करने का वरदान माँगा। फलस्वरूप दक्षिण की गंगा अर्थात गोदावरी नदी का उद्गम हुआ।’ -दंत कथा
गोदावरी के उद्गम के साथ ही गौतम ऋषि के अनुनय-विनय के उपरांत शिवजी ने इस मंदिर में विराजमान होना स्वीकार कर लिया। तीन नेत्रों वाले शिवशंभु के यहाँ विराजमान होने के कारण इस जगह को त्र्यंबक (तीन नेत्रों वाले) कहा जाने लगा। उज्जैन और ओंकारेश्वर की ही तरह त्र्यंबकेश्वर महाराज को इस गाँव का राजा माना जाता है, इसलिए हर सोमवार को त्र्यंबकेश्वर के राजा अपनी प्रजा का हाल जानने के लिए नगर भ्रमण के लिए निकलते हैं।
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The eighth jyotirlingam is Trimbakeshwar Temple, near Nasik in Maharashtra, is a Jyotirling shrine associated with the origin of the Godavari river.This temple is on top of the Neel mountain. All goddesses ('Matamba','Renuka','Mananmba') came here to see 'Parashuram' when he was performing penance (tapas). After his penance he requested all goddesses to stay there and the temple was formed for these goddesses. God Dattatreya दत्तात्रेय (Shripad Shrivallabh) stayed here for some years.Trimbakeshwar is a religious center having one of the twelve Jyotirlingas.







यह ज्‍योतिर्लिंग झारखंड के देवघर नाम स्‍थान पर है। कुछ लोग इसे वैद्यनाथ भी कहते हैं। देवघर अर्थात देवताओं का घर। बैद्यनाथ ज्‍योतिर्लिंग स्थित होने के कारण इस स्‍थान को देवघर नाम मिला है। यह ज्‍योतिर्लिंग एक सिद्धपीठ है। कहा जाता है कि यहाँ पर आने वालों की सारी मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं। इस लिंग को 'कामना लिंग' भी कहा जाता हैं।स्थापना व कथा
इस लिंग स्थापना का इतिहास यह है कि एक बार राक्षसराज रावण ने हिमालय पर जाकर शिवजी की प्रसन्नता के लिये घोर तपस्या की और अपने सिर काट-काटकर शिवलिंग पर चढ़ाने शुरू कर दिये। एक-एक करके नौ सिर चढ़ाने के बाद दसवाँ सिर भी काटने को ही ािा शिवजी प्रसन्न होकर प्रकट हो गये। उन्होंने उसके दसों सिर ज्यों-के-ज्यों कर दिये और फिर वरदान मांगने को कहा। रावण ने लंका में जाकर उस लिंग को स्थापित करने के लिये उसे ले जाने की आज्ञा मांगी। शिवजी ने अनुमति तो दे दी, पर इस चेतावनी के साथ कि यदि मार्ग में इस पृथ्वी पर रख देगा तो वह वहीं अचल हो जाएगां अंतोगत्वा वहीं हुआ। रावण शिवलिंग लेकर चला, पर मार्ग में यहा चिताभूमि में आने पर उसे लघुशंका निवृत्तिा की आवश्यकता हुई और वह उस लिंग को एक अहीर को थमा लघुशंका-निवृत्ता के लिये चला गया। इधर उस अहीर से उसे बहुत अधिक भारी अनुभवकर भूमिकर रख दिया। बस, फिर क्या था, लौटने पर रावण पूरी शक्ति लगाकर भी उसे न उखाड़ सका और निराश होकर मूर्ति पर अपना अंगूठा गड़ाकर लंका को चला गयां इधर ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओं ने आकर उस शिवलिंग की पूजा की और शिवजी का दर्शन करके उनकी वहीं प्रतिष्ठा की और स्तुति करते हुए स्वर्ग चले गये। यह वैद्यनाथ-ज्योतिर्लिग महान् फलों का देनेवाला है।







9. The ninth jyotirlingam is Deoghar Vaijyanath Dham also associated with RavanaBaidyanath Jyotirlinga temple, also known as Baba dham and Baidyanath dham is one of the twelve JyotirlingasIt is located in Deoghar in the Santhal Parganas division of the state of Jharkhand, India. It is a temple complex consisting of the main temple of Baba Baidyanath, where the Jyotirlinga is installed, and 21 other templesthe demon king Ravan worshipped Shiv at the current site of the temple to get the boons that he later used to wreak havoc in the world. Ravana offered his ten heads one after the another to Shiva as a sacrifice. Pleased with this, Shiva descended to earth and cured Ravana who was injured. As he acted as a doctor, he is referred to as Vaidhya ("doctor"). From this aspect of Shiva, the temple derives its name





नागेश्वर मन्दिर एक प्रसिद्द मन्दिर है जो भगवान शिव को समर्पित है। यह द्वारका, गुजरात के बाहरी क्षेत्र में स्थित है। यह शिव जी के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। हिन्दू धर्म के अनुसार नागेश्वर अर्थात नागों का ईश्वर होता है। यह विष आदि से बचाव का सांकेतिक भी है। इस ज्योतिर्लिंग के संबंध में पुराणों यह कथा वर्णित है-
सुप्रिय नामक एक बड़ा धर्मात्मा और सदाचारी वैश्य था। वह भगवान्‌ शिव का अनन्य भक्त था। वह निरन्तर उनकी आराधना, पूजन और ध्यान में तल्लीन रहता था। अपने सारे कार्य वह भगवान्‌ शिव को अर्पित करके करता था। मन, वचन, कर्म से वह पूर्णतः शिवार्चन में ही तल्लीन रहता था। उसकी इस शिव भक्ति से दारुक नामक एक राक्षस बहुत क्रुद्व रहता था। भगवान्‌ शिव का यह प्रसिद्ध ज्योतिर्लिंग गुजरात प्रांत में द्वारकापुरी से लगभग 17 मील की दूरी पर स्थित है। इस पवित्र ज्योतिर्लिंग के दर्शन की शास्त्रों में बड़ी महिमा बताई गई है। कहा गया है कि जो श्रद्धापूर्वक इसकी उत्पत्ति और माहात्म्य की कथा सुनेगा।
उसे भगवान्‌ शिव की यह पूजा किसी प्रकार भी अच्छी नहीं लगती थी। वह निरन्तर इस बात का प्रयत्न किया करता था कि उस सुप्रिय की पूजा-अर्चना में विघ्न पहुँचे। एक बार सुप्रिय नौका पर सवार होकर कहीं जा रहा था। उस दुष्ट राक्षस दारुक ने यह उपयुक्त अवसर देखकर नौका पर आक्रमण कर दिया। उसने नौका में सवार सभी यात्रियों को पकड़कर अपनी राजधानी में ले जाकर कैद कर लिया। सुप्रिय कारागार में भी अपने नित्यनियम के अनुसार भगवान्‌ शिव की पूजा-आराधना करने लगा।
अन्य बंदी यात्रियों को भी वह शिव भक्ति की प्रेरणा देने लगा। दारुक ने जब अपने सेवकों से सुप्रिय के विषय में यह समाचार सुना तब वह अत्यन्त क्रुद्ध होकर उस कारागर में आ पहुँचा। सुप्रिय उस समय भगवान्‌ शिव के चरणों में ध्यान लगाए हुए दोनों आँखें बंद किए बैठा था। उस राक्षस ने उसकी यह मुद्रा देखकर अत्यन्त भीषण स्वर में उसे डाँटते हुए कहा- 'अरे दुष्ट वैश्य! तू आँखें बंद कर इस समय यहाँ कौन- से उपद्रव और षड्यन्त्र करने की बातें सोच रहा है?' उसके यह कहने पर भी धर्मात्मा शिवभक्त सुप्रिय की समाधि भंग नहीं हुई। अब तो वह दारुक राक्षस क्रोध से एकदम पागल हो उठा। उसने तत्काल अपने अनुचरों को सुप्रिय तथा अन्य सभी बंदियों को मार डालने का आदेश दे दिया। सुप्रिय उसके इस आदेश से जरा भी विचलित और भयभीत नहीं हुआ।
वह एकाग्र मन से अपनी और अन्य बंदियों की मुक्ति के लिए भगवान्‌ शिव से प्रार्थना करने लगा। उसे यह पूर्ण विश्वास था कि मेरे आराध्य भगवान्‌ शिवजी इस विपत्ति से मुझे अवश्य ही छुटकारा दिलाएँगे। उसकी प्रार्थना सुनकर भगवान्‌ शंकरजी तत्क्षण उस कारागार में एक ऊँचे स्थान में एक चमकते हुए सिंहासन पर स्थित होकर ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हो गए।
उन्होंने इस प्रकार सुप्रिय को दर्शन देकर उसे अपना पाशुपत-अस्त्र भी प्रदान किया। इस अस्त्र से राक्षस दारुक तथा उसके सहायक का वध करके सुप्रिय शिवधाम को चला गया। भगवान्‌ शिव के आदेशानुसार ही इस ज्योतिर्लिंग का नाम नागेश्वर पड़ा।
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The tenth jyotirlingam is Nageshvar Jyotirling,it is one of the 12 Jyotirling shrines mentioned in the Shiv Puran (Śatarudra Saṁhitā,Ch.42/2-4, referred as "nagesham darukavane"). Nageshwar Temple is at Dwarka



यह तमिल नाडु के रामनाथपुरम जिले में स्थित है। यह तीर्थ के चार धामों में से एक है। भारत के उत्तर मे काशी की जो मान्यता है, वही दक्षिण में रामेश्वरम् की है। रामेश्वरम चेन्नई से लगभग सवा चार सौ मील दक्षिण-पूर्व में है।यहां के मंदिर के तीसरे प्राकार का गलियारा विश्व का सबसे लंबा गलियारा है।[
रामेश्वरम् का मंदिर भारतीय निर्माण-कला और शिल्पकला का एक सुंदर नमूना है। इसके प्रवेश-द्वार चालीस फीट ऊंचा है। प्राकार में और मंदिर के अंदर सैकड़ौ विशाल खंभें है, जो देखने में एक-जैसे लगते है ; परंतु पास जाकर जरा बारीकी से देखा जाय तो मालूम होगा कि हर खंभे पर बेल-बूटे की अलग-अलग कारीगरी है।
रामनाथ की मूर्ति के चारों और परिक्रमा करने के लिए तीन प्राकार बने हुए है। इनमें तीसरा प्राकार सौ साल पहले पूरा हुआ। इस प्राकार की लंबाई चार सौ फुट से अधिक है। दोनों और पांच फुट ऊंचा और करीब आठ फुट चौड़ा चबूतरा बना हुआ है। चबूतरों के एक ओर पत्थर के बड़े-बड़े खंभो की लम्बी कतारे खड़ी है। प्राकार के एक सिरे पर खडे होकर देखने पर ऐसा लगता है मारो सैकड़ों तोरण-द्वार का स्वागत करने के लिए बनाए गये है। इन खंभों की अद्भुत कारीगरी देखकर विदेशी भी दंग रह जाते है। यहां का गलियारा विश्व का सबसे लंबा गलियारा है।
रामनाथ के मंदिर के चारों और दूर तक कोई पहाड़ नहीं है, जहां से पत्थर आसानी से लाये जा सकें। गंधमादन पर्वत तो नाममात्र का है। यह वास्तव में एक टीला है और उसमें से एक विशाल मंदिर के लिए जरूरी पत्थर नहीं निकल सकते। रामेश्वरम् के मंदिर में जो कई लाख टन के पत्थर लगे है, वे सब बहुत दूर-दूर से नावों में लादकर लाये गये है। रामनाथ जी के मंदिर के भीतरी भाग में एक तरह का चिकना काला पत्थर लगा है। कहते है, ये सब पत्थर लंका से लाये गये थे।
रामेश्वरम् के विशाल मंदिर को बनवाने और उसकी रक्षा करने में रामनाथपुरम् नामक छोटी रियासत के राजाओं का बड़ा हाथ रहा। अब तो यह रियासत तमिल नाडु राज्य में मिल गई हैं। रामनाथपुरम् के राजभवन में एक पुराना काला पत्थर रखा हुआ है। कहा जाता है, यह पत्थर राम ने केवटराज को राजतिलक के समय उसके चिह्न के रूप में दिया था। रामेश्वरम् की यात्रा करने वाले लोग इस काले पत्थर को देखने के लिए रामनाथपुरम् जाते है। रामनाथपुरम् रामेश्वरम् से लगभग तैंतीस मील दूर है।
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The eleventh jyotirlingam is Rameswaram in Tamil Nadu is home to the vast Ramalingeswarar Jyotirlinga temple and is revered as the southernmost of the twelve Jyotirlinga shrines of India. It enshrines the Rameśvara ("Lord of Ram") pillar.Ramanathaswamy Jyotirlinga Temple is a famous Hindu temple dedicated to god Shiva located in the island of Rameswaramin the state of Tamil Nadu, India.According to Ramayana, Rama, the seventh incarnation of God Vishnu, is believed to have prayed to Shiva here to absolve any sins that he might have committed during his war against the demon king Ravana in Srilanka To worship Shiva, Rama wanted to have the largest lingam.



महाराष्ट्र में औरंगाबाद के नजदीक दौलताबाद से 11 किलोमीटर दूर घृष्‍णेश्‍वर महादेव का मंदिर स्थित है। यह बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। कुछ लोग इसे घुश्मेश्वर के नाम से भी पुकारते हैं। बौद्ध भिक्षुओं द्वारा निर्मित एलोरा की प्रसिद्ध गुफाएँ इस मंदिर के समीप ही स्थित हैं। इस मंदिर का निर्माण देवी अहिल्याबाई होल्कर ने करवाया था। शहर से दूर स्थित यह मंदिर सादगी से परिपूर्ण है। द्वादश ज्योतिर्लिंगों में यह अंतिम ज्योतिर्लिंग है। इसे घुश्मेश्वर, घुसृणेश्वर या घृष्णेश्वर भी कहा जाता है। यह महाराष्ट्र प्रदेश में दौलताबाद से बारह मीर दूर वेरुलगाँव के पास स्थित है।दक्षिण देश के देवगिरि पर्वत के निकट सुकर्मा नामक ब्राह्मण अपनी पति परायण पत्नी सुदेश के साथ रहता था। वे दोनों शिव भक्त थे किंतु सन्तान न होने से चिंतित रहते थे। पत्नी के आग्रह पर उसके पत्नी की बहन घुस्मा के साथ विवहा किया जो परम शिव भक्त थी। शिव कृपा से उसे एक पुत्र धन की प्राप्ति हुई। इससे सुदेश कार् ईष्या होने लगी और उसने अवसर पा कर सौत के बेटे की हत्या कर दी। भगवान् शिवजी की कृपा से बालक जी उठा तथा घुस्मा की प्रार्थना पर वहां शिवजी सदैव वास करने का वरदान दिया और वहां पर वास करने लगे और घुश्मेश्वर के नाम से प्रसिध्द हुएं उस तालाब का नाम भी तबसे शिवालय हो गया।इस ज्योतिर्लिंग के विषय में पुराणों में यह कथा वर्णित है- दक्षिण देश में देवगिरिपर्वत के निकट सुधर्मा नामक एक अत्यंत तेजस्वी तपोनिष्ट ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी का नाम सुदेहा था दोनों में परस्पर बहुत प्रेम था। किसी प्रकार का कोई कष्ट उन्हें नहीं था। लेकिन उन्हें कोई संतान नहीं थी।
ज्योतिष-गणना से पता चला कि सुदेहा के गर्भ से संतानोत्पत्ति हो ही नहीं सकती। सुदेहा संतान की बहुत ही इच्छुक थी। उसने सुधर्मा से अपनी छोटी बहन से दूसरा विवाह करने का आग्रह किया।
पहले तो सुधर्मा को यह बात नहीं जँची। लेकिन अंत में उन्हें पत्नी की जिद के आगे झुकना ही पड़ा। वे उसका आग्रह टाल नहीं पाए। वे अपनी पत्नी की छोटी बहन घुश्मा को ब्याह कर घर ले आए। घुश्मा अत्यंत विनीत और सदाचारिणी स्त्री थी। वह भगवान्‌ शिव की अनन्य भक्ता थी। प्रतिदिन एक सौ एक पार्थिव शिवलिंग बनाकर हृदय की सच्ची निष्ठा के साथ उनका पूजन करती थी।
भगवान शिवजी की कृपा से थोड़े ही दिन बाद उसके गर्भ से अत्यंत सुंदर और स्वस्थ बालक ने जन्म लिया। बच्चे के जन्म से सुदेहा और घुश्मा दोनों के ही आनंद का पार न रहा। दोनों के दिन बड़े आराम से बीत रहे थे। लेकिन न जाने कैसे थोड़े ही दिनों बाद सुदेहा के मन में एक कुविचार ने जन्म ले लिया। वह सोचने लगी, मेरा तो इस घर में कुछ है नहीं। सब कुछ घुश्मा का है। अब तक सुधर्मा के मन का कुविचार रूपी अंकुर एक विशाल वृक्ष का रूप ले चुका था। अंततः एक दिन उसने घुश्मा के युवा पुत्र को रात में सोते समय मार डाला। उसके शव को ले जाकर उसने उसी तालाब में फेंक दिया जिसमें घुश्मा प्रतिदिन पार्थिव शिवलिंगों को फेंका करती थी

मेरे पति पर भी उसने अधिकार जमा लिया। संतान भी उसी की है। यह कुविचार धीरे-धीरे उसके मन में बढ़ने लगा। इधर घुश्मा का वह बालक भी बड़ा हो रहा था। धीरे-धीरे वह जवान हो गया। उसका विवाह भी हो गया। अब तक सुधर्मा के मन का कुविचार रूपी अंकुर एक विशाल वृक्ष का रूप ले चुका था। अंततः एक दिन उसने घुश्मा के युवा पुत्र को रात में सोते समय मार डाला। उसके शव को ले जाकर उसने उसी तालाब में फेंक दिया जिसमें घुश्मा प्रतिदिन पार्थिव शिवलिंगों को फेंका करती थी।
सुबह होते ही सबको इस बात का पता लगा। पूरे घर में कुहराम मच गया। सुधर्मा और उसकी पुत्रवधू दोनों सिर पीटकर फूट-फूटकर रोने लगे। लेकिन घुश्मा नित्य की भाँति भगवान्‌ शिव की आराधना में तल्लीन रही। जैसे कुछ हुआ ही न हो। पूजा समाप्त करने के बाद वह पार्थिव शिवलिंगों को तालाब में छोड़ने के लिए चल पड़ी। जब वह तालाब से लौटने लगी उसी समय उसका प्यारा लाल तालाब के भीतर से निकलकर आता हुआ दिखलाई पड़ा। वह सदा की भाँति आकर घुश्मा के चरणों पर गिर पड़ा।
जैसे कहीं आस-पास से ही घूमकर आ रहा हो। इसी समय भगवान्‌ शिव भी वहाँ प्रकट होकर घुश्मा से वर माँगने को कहने लगे। वह सुदेहा की घनौनी करतूत से अत्यंत क्रुद्ध हो उठे थे। अपने त्रिशूल द्वारा उसका गला काटने को उद्यत दिखलाई दे रहे थे। घुश्मा ने हाथ जोड़कर भगवान्‌ शिव से कहा- 'प्रभो! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मेरी उस अभागिन बहन को क्षमा कर दें। निश्चित ही उसने अत्यंत जघन्य पाप किया है किंतु आपकी दया से मुझे मेरा पुत्र वापस मिल गया। अब आप उसे क्षमा करें और प्रभो!
मेरी एक प्रार्थना और है, लोक-कल्याण के लिए आप इस स्थान पर सर्वदा के लिए निवास करें।' भगवान्‌ शिव ने उसकी ये दोनों बातें स्वीकार कर लीं। ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट होकर वह वहीं निवास करने लगे। सती शिवभक्त घुश्मा के आराध्य होने के कारण वे यहाँ घुश्मेश्वर महादेव के नाम से विख्यात हुए। घुश्मेश्वर-ज्योतिर्लिंग की महिमा पुराणों में बहुत विस्तार से वर्णित की गई है। इनका दर्शन लोक-परलोक दोनों के लिए अमोघ फलदाई है।






12. The twelth jyotirlingam is Grishneshwar Jyotirlinga shrine, in Aurangabad district, Maharashtra, is located near the rock-cut temples of Ellora. This shrine is also known as Ghushmeshwar.The temple is located eleven km from Daulatabad, near Aurangabad in Maharashtra India. The temple is located near the famous Ellora Caves.Legend has it that a devout woman Kusuma offered worship to Shiva regularly by immersing a Shivalingam in a tank, as a part of her daily ritual worship. Her husband's first wife, envious of her piety and standing in society murdered Kusuma's son in cold blood. An aggrieved Kusuma continued her ritual worship, and when she immersed the Shivalingam again in the tank, her son was miraculously restored to life. Shiva is said to have appeared in front of her and the villagers, and then one is believed to have been worshipped in the form of a Jyotirlinga Ghusmeshwar