The Vedas are not books, rather it is a knowledge originated in the hearts of Rishis.''Vedas are actually never created or destroyed. They merely get illuminated and de-illuminated but remain in Ishwar.''Adi Shankrachary Vedas are Apaurusheya (not created by humans)Kumarilbhatt
जैसे बिना चाहे सांसारिक दुःख प्राप्त होता है, इसी प्रकार बिना चाहे सांसारिक सुख भी प्राप्त होता है, अत: स्वयं सांसारिक सुख की इच्छा कभी नही करनी चाहिए l अपने लिए भोग और संग्रह की इच्छा करने से मनुष्य पशुओं से भी नीचे गिर जाता है और इच्छा का त्याग करने से वह देवताओं से भी ऊँचा उठ जाता है l विचार करो जिससे आप सुख चाहते हो क्या वह पूर्ण रूप से सुखी है? क्या उसे कोई दुःख नही है ? दुखी व्यक्ति आपको सुखी कैसे बना देगा ? जिसके भीतर कोई इच्छा नही होती, उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति प्रकृति अपने आप करती है l यदि शांति चाहते हो तो “ऐसा होना चाहिए और ऐसा नही होना चाहिए” इसे छोड़ दो, और “जो भगवान चाहें वही होना चाहिये” उसको स्वीकार कर लो l वस्तु के न मिलने से हम अभागे नही हैं, बल्कि भगवान के अंश होकर भी हम नाशवान वस्तु की इच्छा करते हैं, यही हमारा वास्तविक अभागापन है l भगवान जो कुछ करते हैं उसी में मेरा हित है, ऐसा विश्वास करके हर परिस्थिति में निश्चिन्त रहना चाहिए l आप भगवान को नही देखते पर भगवान आपको निरंतर देख एहे हैं l जब तक नाशवान वस्तुओं में सत्यता दिखेगी तब तक बोध नही होगा l अभी जो धन प्राप्त हो रहा है वह वर्तमान कर्मो का फल नही अपितु प्रारब्ध (पूर्वजन्मो के कर्मो ) का फल है l वर्तमान में धन प्राप्ति के लिए जो बेईमानी की जाती है उसका फल तो आगे मिलेगा l जैसे अपना दुःख दूर करने हेतु रूपये खर्च करते हैं वैसे ही दूसरों का दुःख दूर करने हेतु भी खर्च करो, अभी हमे रूपये रखने का अधिकार है l मनुष्य का सम्मान एवं प्रतिष्ठा धन बढने से नही है, बल्कि धर्म बढने से है l
भगवान के नाम का जप और कीर्तन दोनों कलयुग से रक्षा करके उद्धार करने वाले हैं l नाम जप में प्रगति होने की पहचान है, नाम जप छूटता ही नही l नाम जप में रूचि नाम जप करने से ही होती है l भगवान के नाम का जप सबके लिए है, और जीभ भी सबके मुख में होती है, परन्तु फिर भी कितने ही नरक में जाते हैं, आश्चर्य है l भगवान का कौन सा नाम बढिया है, और भगवान का कौन सा रूप बढिया है, इसकी परीक्षा करने की बजाय अपनी परीक्षा करनी चाहिए, कि मुझे भगवान का कौन सा नाम और रूप अधिक प्रिय है l दूसरों का बुरा करने से तो पाप लगता ही है, लेकिन दूसरों की बुराई कहने और सुनने में भी पाप लगता है l भगवान से विमुख होना और संसार के सम्मुख होना, यही सबसे बड़ा पाप है l किसी व्यक्ति को भगवान की और ले जाने के सामान कोई पुन्य नही है कोई दान नही है l पहले पाप कर लें फिर प्रायश्चित्त कर लेंगे ऐसे जान बूझ कर किये गए पाप प्रायश्चित्त से नष्ट नही होते प्रत्येक मनुष्य को भगवान् की और चलना ही पड़ेगा, भले आज चले या अनेक जन्मो के बाद चले... तो फिर देरी क्यों ? संसार के कार्य में तो लाभ और हानि दोनों ही होते हैं, परन्तु भगवान के कार्य में लाभ ही लाभ होता है l सांसार में असंतोष करने से पतन होता है और परमात्मा में असंतोष करने से उत्थान होता है l प्रारब्ध का कार्य तो केवल सुख देने वाली या दुःख देने वाली परिस्थिति को उत्पन्न करना है, परन्तु उसमे सुखी या दुखी होना उसके चयन में मनुष्य स्वतंत्र है l यह परमात्मा का विधान है कि अपने पाप से अधिक दंड कोई नही भोगता और जो दंड प्राप्त होता है वह अपने ही किसी न किसी पाप का फल होता है l संसार में प्रेम घटते ही परमात्मा में प्रेम हो जाता हि भगवान के प्रति प्रेम होना, आकर्षण होना, खिंचाव होना ही भक्ति है l
दूसरों के प्रति हमारी बुरी भावना होने से उनका बुरा होगा या नही यह निश्चित नही है, परन्तु हमारा अंत:करण मिला हो जायेगा यह निश्चित है l — संसार बंधन से मुक्त होना चाहते हो तो जो वस्तुएं तुम्हें प्राप्त हैं उनकी ममता और जो वस्तुएं तुम्हें प्राप्त नही हैं उनकी कामना का त्याग करता l शरीर संसार का अंश है, हम स्वयं परमात्मा के अंश हैं, इसलिए शरीर को संसार को अर्पित कर देना चाहिए अर्थात संसार की सेवा में लगा देना चाहिए, और स्वयं को परमात्मा को अर्पित कर दे, फिर आज ही मुक्ति है l अनुकूलता - प्रतिकूलता ही संसार है, अनुकूलता - प्रतिकूलता में प्रसन्न और दुखी होने से मनुष्य बंध जाता है, तथा प्रसन्न और दुखी न होने से मुक्त हो जाता है l
अपने लिए सुख चाहने से नाशवान सुख प्राप्त होता है और दूसरों को सुख पहुंचाने से अविनाशी सुख प्राप्त होता है l सुख भोगने हेतु स्वर्ग है, तथा दुःख भोगने हेतु नरक है तथा सुख-दुःख से ऊँचे उठ कर महान आनन्द की प्राप्ति हेतु मनुष्य लोग है l जैसे रोगी का उद्देश्य निरोग होना है, इसी प्रकार मनुष्य जीवन का उद्देश्य अपना कल्याण करना है l . इन्द्रियों द्वारा भोग तो पशु भी भोगते हैं, पर उन भोगों को भोगना मनुष्य जीवन का उद्देश्य नही l सुख –दुःख से रहित तत्व को प्राप्त करना मनुष्य जीवन का उद्देश्य है l वास्तव में परमात्मा प्राप्ति के सिवाय मनुष्य जीवन का अन्य कोई प्रयोजन नही, आवश्यक केवल इस प्रयोजन को पहचान कर इसे पूरा करने की है l जो आराम चाहता है वह अपनी वास्तविक उन्नति कभी नही कर सकता l शरीर, इन्द्रियां, मन, बुद्धि इनसे अपना संबंध न रखना ही सच्चा एकांत है l वर्तमान समय में घरों में एवं समान में जो अशांति देखने में आ रही है, उसका मूल कारण है कि लोग अपने अधिकार की मांग तो करते हैं परन्तु अपने कर्तव्यों का पालन नही करते l अपने हित हेतु किया गया कर्म ‘असत’ तथा दूसरों के हित के लिए किया गया कर्म ‘सत’ है, असत का परिणाम जन्म मरण और सत का परिणाम परमात्मा प्राप्ति है l संसार के सभी संबंध अपने कर्तव्य का पालन करने हेतु हैं, न कि अधिकार जमाने हेतु, सुख देने के लिए है न कि सुख लेने के लिए l कल्याण की प्राप्ति अत्यंत सुगम एवं सरल है, परन्तु कल्याण की ईच्छा ही न हो तो फिर वह इच्छा सरलता किस काम की ? घर में रहने वाले सब लोग स्वयं को सेवक तथा दूसरों को सेव्य समझें, तो सबकी सेवा भी हो जाएगी और सबका कल्याण भी हो जायेगा l “मेरे मन की हो जाए” इसी को कामना कहते हैं... यह कामना ही दुःख का कारण है, अत: इसका त्याग किये बिना कोई सुखी नही हो सकता l जैसे जैसे कामनाएं नष्ट होती हैं, वैसे वैसे ही साधुता आती है, और जैसे जैसे कामनाएं बढती हैं वैसे वैसे साधुता लुप्त होती है, क्यूंकि (कारण) असाधुता का मूल कामना ही है l ऐसा होना चाहिए, ऐसा नही होना चाहिए... इसी में सब दुःख भरे हुए हैं l यदि शान्ति चाहते हो तो कामनाओं का त्याग करो l
भगवान को अपना मानना योग है और भगवान से कुछ चाहना भोग है l
बाहर का प्रकाश तो सूर्य करता है, भीतर का प्रकाश संत महात्मा करते हैं l
“मुझे मिल जाये” यह भोग है “दूसरों को मिल जाये” यह योग है l
योगी के द्वारा सबको सुख मिलता है और भोगी के द्वारा सबको दुःख ही मिलता है l
मनुष्य शरीर मिल गया परन्तु परमात्मा की प्राप्ति नही हुई यही सबसे बड़ा दुःख होना चाहिए l
शरीर का सदुपयोग तो केवल संसार की सेवा में ही है l
पापी मनुष्य तो पशुओं से भी नीच है क्योंकि पशु तो अपनी 84 लाख योनियों को भोग लेने के बाद मनुष्य बनने वाला है और जो मनुष्य शरीर प्राप्त करके भी पाप कर रहा है वह फिर 84 लाख योनियों में जाने की तैयारी कर रहा है l
मनुष्य शरीर केवल परमात्मा की प्राप्ति हेतु मिला है, परमात्मा की प्राप्ति करना ही मनुष्य का वास्तविक धर्म है l
सुख भोगने के लिए स्वर्ग है और दुःख भोगने के लिए नरक है, और सुख दुःख दोनों से ऊँचा उठ कर अपना कल्याण करने के लिए मनुष्य शरीर है l
मन की चंचलता मिटाने की इतनी आवश्यकता नही जितना मन को जो संसार प्यारा लगता है उस कामना को मिटाने की... जिससे मन की चंचलता अपने आप मिट जाएगी l
भगवान हमारे हैं और जो कुछ भी भगवान ने हमे दिया वह भी भगवान का ही है l
परमात्मा के सिवाय कोई मेरा नही है यही वास्तविक भक्ति है l
संसार अधूरा है इसलिए अधुरा ही मिलता है, और परमात्मा पूरे हैं इसलिए पूरे ही मिलते हैं l
जैसे मछली जल के बिना व्याकुल हो जाती है, ऐसे ही यदि हम भगवान के बिना व्याकुल हो जायें, तो भगवान के मिलने में समय नही लगेगा l
जैसे गाय का दूध गाय के लिए नही है अपितु दूसरों के लिए है ऐसे ही भगवान की कृपा भी उनके लिए नही अपितु हम सबके लिए है l
भगवान के भक्त को भगवान पहले दूर दिखते हैं, फिर पास दिखते हैं, फिर अपने अंदर दिखते हैं और फिर केवल भगवान ही दिखते हैं l
जिसकी दृष्टि संसार पर रहती है वह कहता है... “भगवान कहाँ है?” ... जिसकी सदा भगवान पर रहती है वह कहता है ...”भगवान कहाँ नही है?”
भगवान सबसे शक्तिशाली होने पर भी हमसे दूर होने का सामर्थ्य नही रखते l
जैसे सूर्य प्रकट होता है... पैदा नही होता, ऐसे ही भगवान अवतार के समय प्रकट होते हैं, हमारी तरह पैदा नही होते l
जब अंत:करण में संसार का महत्व है तब तक परमात्मा का महत्व समझ में नही आता l
भगवान अपने भक्त का जितना आदर करते हैं उतना आदर करने वाला संसार में कोई नही, भक्त भगवान को जिस रूप में देखना चाहता है, भगवान उसके लिए वैसे ही बन जाते हैं l
जैसे लालची व्यक्ति की दृष्टी धन पर ही रहती है ऐसे ही भक्त की दृष्टि सदा भगवान पर ही रहनी चाहिए l
जो भगवान का सच्चा भक्त होता है वह कोई कर्म नही करता अपितु पूजा ही करता है क्योंकि प्रत्येक कर्म करते हुए उसकी भावना पूजा की रहती है l
जिसका मन भगवान में लगा रहता है उसे सामान्य मनुष्य नही समझना चाहिए, क्यूंकि वह भगवान के दरबार का सदस्य है l
याद रखो किसी का बुरा करोगे तो उसका बुरा हो या न हो तुम्हारा नया पाप अवश्य हो जायेगा l
मनसे भगवान् का चिंतन, वाणीसे भगवान् के नामका जप, सबको नारायण समझकर शरीर से जगज्जनार्दनकी नि:स्वार्थ सेवा यही उत्तम-से-उत्तम कर्म है ।
जिसका समय व्यर्थ होता है, उसने समय का मूल्य समझा ही नहीं ।
जो संसार समुद्र से कुछ लेना चाहता है वह डूब जाता है और जो देना चाहता है वह पार हो जाता है l
अपने हित की अपेक्षा जब परहित को अधिक महत्व मिलेगा तभी सच्चा सतयुग प्रकट होगा।
अपनी दिनचर्या में परमार्थ को स्थान दिये बिना आत्मा का निर्मल और निष्कलंक रहना संभव नहीं।
१ स्नान और नित्यकर्म किये बिना दातुन और जलके सिवा कुछ भी मुख में न लें ।
२ श्रीभगवान् के भोग लगाकर तथा यथादिकार बलिवैश्वदेव करके ही भोजन करें ।
३ तुलसीदल के सिवा चलते फिरते या खड़े हुए कोई भी चीज कभी न खाय ।
४ भोजन के आदि और अंत में आचमन करे ।
धन किसी को अपना दास नहीं बनाता, मनुष्य स्वयं ही धन का दास बन कर अपना पतन कर लेता है l
मुक्ति इच्छाओं के त्याग से होती है वस्तुओं के त्याग से नही l
यदि आप चाहते हैं कि कोई भी मुझे बुरा न समझे तो दूसरों को बुरा समझने का भी आपको कोई अधिकार नही है l
मनुष्य का अंत:करण जितना अपवित्र होता है उतना ही उसे दूसरों के दोष दिखते हैं l
दूसरों का दोष देखने से ना तो हमारा भला होता है न दूसरों का l
जैसा मैं चाहूं वैसा हो जाये यह इच्छा जब तक रहेगी, तब तक शांति नही मिल सकती l
मनुष्य समझदार होकर भी उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओं को चाहता है, ये कितने आश्चर्य की बात है l
जितना हो सके दूसरों की आशाएं पूरी करने का प्रयास करो परन्तु दूसरों से आशा मत रखो l
परमात्मा की अभिलाषा करते हो तो संसार की अभिलाषाओं को छोडो l
कामना के कारण ही कमी है, कामना से रहित होने पर कोई कमी नही रहती l
दया के सामान कोई धर्म नहीं, हिंसा के सामान कोई पाप नहीं, ब्रह्मचर्य के सामान कोई व्रत नहीं, ध्यान के सामान कोई साधन नहीं, शान्ति के सामान कोई सुख नहीं, ऋणके सामान कोई दुःख नहीं, ज्ञान के सामान कोई पवित्र नहीं, ईश्वर के सामान कोई इष्ट नहीं, पापी के सामान कोई दुष्ट नहीं — ये एक-एक अपने –अपने स्थान पर अपने-अपने विषयमें सबसे बढ़कर प्रधान हैं ।
मनुष्य-जीवन के समय को अमूल्य समझकर उत्तम-से-उत्तम काममें व्यतीत करना चाहिये। एक क्षण भी व्यर्थ नहीं बिताना चाहिये ।
🚩एकांत में रहते हुए, 🚩 गंगा स्नान करते हुए, 🚩 भगवान का पूजन करते हुए, 🚩श्री तुलसी कि परिक्रमा करते हुए 🚩श्री हरि के चिन्तन में भी समय व्यतीत करें l
💠 जैसे बच्चा खेलते खेलते माँ को भूल भी जाए पर माँ कभी बच्चे को नही भूलती 💠 ऐसे ही उस परमात्मा का प्रेम तो माता से कहीं अधिक है, तो मैं क्यों चिंता करूँ भगवान स्वयम मेरा भार उठाएंगे l
गीतामें सैकड़ों ऐसे श्लोक हैं जिनमें से एक को भी पूर्णतया धारण करनेसे मनुष्य मुक्त हो जाता है, फिर सम्पूर्ण गीताकी तो बात ही क्या है जबतक अपनी इच्छा रखोगे, तबतक संसार आदर नहीं करेगा। 🔔अपनी इच्छा छोड़ कर व्यवहार करो।"- 🚩श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज🚩 🔔"स्वार्थ के कारण खुद खाने में आनंद आता है। 🔔 स्वार्थ न हो तो दूसरों को खिलाने में आनंद आता है।"- 🚩श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज🚩 🔔जहाँ राग-द्वेष, हर्ष-शोक, अच्छा-मंदा, अनुकूल-प्रतिकूल आदि दो चीजें रहती हैं, वह संसार है। 🔔दो चीजें मिटकर एक समता हो जाए तो वह परमात्मा है।"- 🚩श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज🚩
महाराज युधिष्ठिरने स्वर्गको ठुकरा दिया, पर अपने अनुगत कुत्तेका भी त्याग नहीं किया ।
पाण्डवोंने अपनेसे निम्नश्रेणी के राजा विराटकी नौकरी स्वीकार कर ली, पर धर्म का किंचिन्मात्र भी कभी त्याग नहीं किया ।
धैर्य, क्षमा, मनोनिग्रह, अस्तेय, बाहर-भीतर की पवित्रता, इन्द्रियनिग्रह, सात्त्विकबुद्धि, अध्यात्मविद्या, सत्यभाषण, और क्रोध न करना— ये दस सामान्य धर्मके लक्षण हैं ।
सर्वस्व जाय तो भी कभी किसी निमित्तसे कहीं किन्चिन्मात्र भी पाप न करे, न करवावे और न उसमे सहमत ही हो ।
महापुरुषों के प्रभाव से भगवान् की प्राप्ति होना — यह तो उनका अलौकिक प्रभाव है तथा सांसारिक कार्य की सिद्धि होना — लौकिक प्रभाव है ।
मरुभूमि में जल दीखता है, वास्तव में है नहीं । अत: कोई भी समझदार मनुष्य प्यासा होते हुए भी वहाँ जलके लिये नहीं जाता । इसी प्रकार संसार के विषयों में भी सुख प्रतीत होता है, वास्तव में है नहीं । ऐसा जाननेवाले विरक्त विवेकी पुरुष की सुख के लिये उसमे कभी प्रवृत्ति नहीं होती ।
आसक्ति वाले पुरुषके मनके अनुकूल होने पर राग और हर्ष तथा प्रतिकूल होने पर द्वेष और दुःख होता है ।
झूठसे बचने के लिये जहाँ तक हो, भविष्यके निश्चित वचन नहीं कहने चाहिये ।
संसार के किसी भी प्रदार्थ से आसक्ति नहीं करनी चाहिये; क्योंकि आसक्ति होने से अन्तकाल में उसका संकल्प हो सकता है । संकल्प होनेपर जन्म लेना पड़ता है ।
बार बार मन से पूछे कि “ बतला, तेरी क्या इच्छा है ?” और मनसे यह उत्तर मिले कि “कुछ भी इच्छा नहीं है ।“ इस प्रकार के अभ्यास से इच्छा का नाश होता है । यह निश्चित बात है ।
जिसने सत्य,अहिंसा,क्षमा,दया,समता,शान्ति,संतोष,सरलता,तितिक्षा, त्याग आदि शस्त्र धारण कर रखें हैं , उसका कोई भी शत्रु किंचिन्मात्र भी अनिष्ट नहीं कर सकता ।
विशुद्ध ईश्वर-प्रेम एक बहुत गोपनीय परम रहस्य की वस्तु है । उससे बढ़कर संसार में कोई उत्तम वस्तु नहीं ।
सदा-सर्वदा ईश्वर पर निर्भर रहना चाहिये । इससे धीरता, वीरता, गंभीरता, निर्भयता और आत्मबलकी वृद्धि होती है ।
ईश्वर की सत्ता पर प्रत्यक्षसे भी बढ़कर विश्वास रखे; क्योंकि ईश्वर पर जितना प्रबल विश्वास होगा, साधक उतना ही पाप से बचेगा और उसका साधन तीव्र होगा ।
जिसमे प्राणियों की हिंसा होती हो, ऐसी किसी चीज को व्यवहार में न लावें।
धन का प्राप्त होना यद्यपि अपने वश की बात नहीं है, तथापि मनुष्य को शरीरनिर्वाह के लिये कर्तव्यबुद्धिसे न्याययुक्त परिश्रम तो अवश्य करना चाहिये ।
अकर्मण्यता(कर्तव्यसे जी चुराना) महान हानिकारक है। पाप का प्रायश्चित है, किन्तु इसका नहीं । अकर्मण्यता का त्याग ही इसका प्रायश्चित है ।
भगवान् के नाम-रूपको याद रखते हुए ही सामाजिक, व्यवहारिक, आर्थिक आदि काम नि:स्वार्थ भाव से करे ; क्योंकि अपनी सारी चेष्टा नि:स्वार्थभाव से दूसरे के हित के लिये करने से ही कल्याण होता है ।
भगवत्प्राप्ति पवित्र और एकान्त देश का सेवन, सत्संग और स्वाध्याय , परमात्माका ध्यान और उसके नाम का जप, निष्कामभाव, ज्ञान, वैराग्य और उपरति — इनके सामान कोई भी साधन नहीं है ।
ब्रह्ममुहूर्त में उठाना चाहिये । यदि सोते- सोते ही सूर्योदय हो जाय तो दिनभर उपवास और जप करना चाहिये ।
सुननेवालों की इच्छा के बिना वक्ता को सत्संग के सहस्य की बातें नहीं सुनानी चाहिये ।
भगवान् के सामान अपना कोई हितैषी नहीं है, अत: अपने अधीन सब पदार्थों को और अपने को राजा बलि की भाँती भगवान् के समर्पण कर देना चाहिये ।
एकांत में मन को सदा यही समझाना चाहिये कि परमात्मा के चिंतन के सिवा किसी का चिंतन न करो; क्योंकि व्यर्थ चिंतन से बहुत हानि है ।
सोते समय भी भगवान् के नाम, रूपका स्मरण विशेषतासे करना चाहिये, जिससे शयन का समय व्यर्थ न जाय । शयनके समय को साधन बनाने के लिये सांसारिक संकल्पोंके प्रवाहको भुलाकर भगवान् के नाम,रूप,गुण,प्रभाव, चरित्रका चिंतन करते हुए ही सोना चाहिये ।
भोजन के समय स्वाद की और ध्यान नहीं देना चाहिये;क्योंकि यह पतन का हेतु है । स्वास्थ्य की ओर लक्ष्य रखना भी वैराग्य में कमी ही है ।
जो भगवान, गुरु, ग्रन्थों से डरता है वही सच्चा वीर है l
कोई हमे अपनी ख़ुशी से कोई चीज़ दे तो वो चीक दूध जैसी है,-हम किसी वस्तु को मांग रहे हैं तो वो चीज़ पानी जैसी है,-हम किसी चीज को छीन के दूसरों का दिल दुखा कर लें तो वो वस्तु रक्त जैसी है l
जब हम सबकी बात नही मानते तो दूसरा हमारी बात नही मानता तो हमे नाराज नही होना चाहिए l
सच्चे धार्मिक व्यक्ति को दुनिया की कोई वस्तु नही चाहिए बल्कि दुनिया उसके पीछे फिरती है l
धर्म के अनुसार स्वयं चलना ही धर्म का सबसे बड़ा प्रचार है l
धर्म का मूल है:-स्वर्थ का त्याग, दूसरों का भला करना
भारत में जन्म लेकर भी मनुष्य धर्म में न लगे ये बड़े आश्चर्य तथा दुःख की बात है क्योंकि धर्म ही तो भारत की अरमा है, भारत में जन्म मिलना अर्थात भगवान की कृपा होना, भारत में जन्म ही धर्म की प्राप्ति के लिए मिलता है l
वस्तुमात्र को भगवान् का स्वरुप और चेष्टामात्र को भगवान् की लीला समझने समझने से भगवान् का तत्त्व समझ में आ जाता है ।
सर्वत्र भगवद्भावके सामान कोई भाव नहीं है और सर्वत्र भगवद्भाव होने से दुर्गुण और दुरुचारों का अत्यंत अभाव होकर सद्गुण और सदाचार अपने–आप ही आ जाते हैं ।
भगवान् बहुत बड़े दयालु और प्रेमी हैं । जो साधक उनका तत्त्व समझ जायगा, वह भगवान् की शरण होकर शीघ्र ही परम शान्ति को प्राप्त हो जायगा ।
प्रेमपूर्वक जप-सहित भगवान् के ध्यान का अभ्यास, श्रद्धापूर्वक सत्पुरुषोंका संग, विवेकपूर्वक भावसहित सत- शास्त्रों का स्वाध्याय, दु:खी, अनाथ, पूज्यजन तथा वृद्धों की नि:स्वार्थभावसे सेवा — इनको यदि कर्तव्यबुद्धिसे किया जाय तो ये एक-एक साधन शीघ्र कल्याण करने वाले हैं ।
जिसने ईश्वर की दया और प्रेम के तत्त्व-रहस्य को जान लिया है, उसके शान्ति और आनन्द की सीमा नहीं रहती ।
शीघ्र कल्याण चाहने वाले मनुष्य को परमात्माकी प्राप्ति के सिवा और किसी भी बात की इच्छा नहीं रखनी चहिये; क्योंकि इसके सिवा सब इच्छाएँ जन्म-मृत्यु रूप संसार-सागर में भरमाने वाली हैं
श्रद्धा होने पर श्रद्धेय पुरुष की छोटी-से-छोटी क्रिया में भी बहुत ही विलक्षण भाव प्रतीत होने लगता है ।
ईश्वर, महात्मा, शास्त्र और परलोक में विश्वास करने वाले पुरुष से कभी पाप नहीं बन सकते । उसमे धीरता, वीरता, गम्भीरता, निर्भयता, समता और शान्ति आदि अनेक गुण अनायास ही आ जाते हैं, जिससे उसके सारे आचरण स्वाभाविक ही उत्तम-से-उत्तम होने लगते हैं ।
भगवान् के नाम,रूप, गुण , प्रभाव, तत्त्व, रहस्य और चरित्रों को हर समय याद करते हुए मुग्ध रहना चाहिये ।
एकान्त में भगवान् के आगे करुण भाव से रोते हुए स्तुति प्रार्थना करने से भी श्रद्धा बढती है ।
भगवान् के गुण, प्रभाव, चरित्र तत्त्व और रहस्य की बातें सुनने, पढ़ने और मनन करने से श्रद्धा होती है ।
शौचाचारसे सदाचार बहुत ऊँचा है, उस से भी भगवान् की भक्ति और ऊँचे दर्जे की चीज है ।
मन और इन्द्रियोंको इस प्रकार वशमें रखना चाहिये कि जिस से व्यर्थ और पापके काममें न जाकर जहाँ हम लगाना चाहें उसी भगवत्प्राप्ति के मार्ग पर लगी रहें ।
अपने द्वारा किसी का अनिष्ट हो जाय तो सदा उसका हित ही करता रहे, जिससे कि अपने किये हुए अपराध को वह मनसे भूल जाय, यही इसका असली प्रायश्चित है ।
अपने पर किये हुए उपकार को आजीवन कभी न भूले एवं अपकार करने वाले का बहुत भारी प्रत्युपकार करके भी अपने ऊपर उसका अहसान ही समझे ।
अनिष्ट करने वाले के साथ बदले में बुराई न करे, उसे क्षमा कर दे; क्योंकि प्रतिहिंसा का भाव रखने से मनुष्य दोष का भागी होताकिसी के भी दुर्गुण-दुराचार का दर्शन, श्रवण, मनन, और कथन नहीं करना चाहिये। यदि उसमे किसी का हित हो तो कर सकते हैं; किन्तु मन धोखा दे सकता है, अत: खूब सावधानी के साथ विचार पूर्वक करना चाहिये । है ।
दूसरों को दुःख पहुँचाने के सामान कोई पाप नही है और सुख पहुँचाने के सामान कोई धर्म नहीं है । इसलिये हर समय दूसरों के हित के लिये प्रयत्न करना चाहिये ।
स्त्रीके लिये पातिव्रत्यधर्म ही सबसे बढ़कर है । इसलिये भगवान् को याद रखते हुए ही पतिकी आज्ञा का पालन विशेषता से करना चाहिये तथा पतीके और बड़ों के चरणों में नमस्कार करना और उनसबकी यथायोग्य सेवा करनी चाहिये ।